उत्तराधिकार के नाम पर मिलीं
कुछ चिट्ठियाँ जिनका जवाब देना है,
कुछ उधार जो चुकता करना है,
टूटे लोहे के बक्से, घिसे बरतन, कुछ गूदड़
जिन्हें देख-देखकर अपने पर स्वयं
दया दर्शाने से कुछ सिद्ध नहीं होता।
जिन्हें छोड़ा भी नहीं जा सकता
और न रखने के लिए इस बड़े शहर में
मकान का एक हिस्सा ही
ख़ाली किया जा सकता है।

बिजली का करेंट लगने से
कमरे में एक चिड़िया ने मेरे सामने
तड़प-तड़पकर जान छोड़ दी।
बिना रुके हो रही बरसात… जल-ही-जल…
इन सबके बीच ‘कन्फ़ेस’ करते हुए लगता है—
बहुत से रास्तों में एक होता है वह
आकाश तक पहुँचने वाली
पसन्द-नापसन्द के बीच
जिसका बिन्दु स्थिर होता है।

एक ओर जब कि मृत्यु की प्रतीक्षा ही
उत्तेजना भरती हो,
दूसरी ओर उस तक घिसटते-घिसटते
सुबह और शाम की दूरी के घण्टे
उँगलियों पर ही गिने जा सके।

चीज़ों के ठीक रूप की पहचान करते-करते,
चीज़ों के सही मायने समझने की कोशिश में,
उम्र की इस ड्योढ़ी पर पता लगा—
उसका व्याकरण और अर्थ सभी उलटा था।

ज़िन्दगी के पूरे ग़लत पाठ को
दुबारा सही ढंग से
याद कर पाने का साहस जुटा रही हूँ।

स्नेहमयी चौधरी की कविता 'जलती हुई औरत का वक्तव्य'

Book by Snehmayi Choudhary: