‘Poorv Premika Aur Bench Par Dono Naam’, a poem by Usha Dashora

अनुप्रास अलंकार की
कहानी थी वो
एक ही वर्ण की काव्यमयी आवृत्ति
बार-बार हो जैसे

सेब को चाकू से काट कर नहीं
उसे साबुत खाना पसंद था
दरवाज़े के पीछे छिपकर
‘ढूँढों मैं कहाँ हूँ’ कहकर
अक्सर ठठ्ठा लगाती
फिर हीलीयम से भरे
गुब्बारे की तरह उड़ती
और कमरे की छत से टकरा जाती

प्रेम ऐसे करती
जैसे बो गई हो मोगरे के फूलों
से खिली लाखों बेले
मेरे शरीर में

मेरी कमीज़ की बाहों में
अपना हाथ फँसा लेती
और माथे के सलों से पूछती
तुम कभी लिखोगे
मेरे लिए
ख़ून से चिठ्ठियाँ

मेरे उत्तर का
इंतज़ार किए बिना
अपने पैर का नाख़ून
मेरे पैर के नाख़ून में गाड़ देती
जब कहीं भीतर जलने लगते
ज्वलनशील रसायन
तो आँखें मूँदकर बुद्ध हो जाती

पोहों में बहुत सारा मीठा नीम
उसे पसंद था
उसकी हथेलियाँ
मीठे नीम सी गंधियाती,
ले आती कहीं से
लकड़ी का सूखा तिनका
और मेरे कान को गुदगुदाती
फिर उस लोहे की बैंच से –
जिस पर प्रकार से हमने
एक दूसरे के नाम गोद दिए थे –
वकालत करवाते हुए कहती
पूछ लो इससे – ‘मैंने कुछ नहीं किया’

हिमालय से ग्लेश्यर के
पिघलने की
और
नदियों का हाथ छोड़कर बहते हुए
फिर कभी न लौट आने की बात
हज़ारों दफ़ा पूछने के बाद
फिर चिकोटी काटकर पूछती
क्या हिमालय ऊँचाई से
नदी को ताकता होगा?
और रोते हुए
दर्शनशास्त्री की तरह कहती
शायद हाँ
शायद नहीं

वो ख़रीद लायी थी
सुरेंद्र वर्मा का ‘मुझे चांद चाहिए’
हॉस्टल से लौटते वक़्त
पर मेरे पास तो थी बस बाँहें, ज़मीन
और पत्थर की गिट्टियाँ
तब मैं ख़रीद लाया
मीठा नीम
उसी दिन से
यशोधरा की इंतज़ार वाली आत्मा
मैंने और मीठे नीम ने
आधी-आधी बाँट ली

कई बरस बीते गर्मी में ग्लेश्यर भयंकर पीघले
और सर्दी में पद्मासन लगाकर शांत ऋषि से जम गए
लौटने और ताकने की क्रियाएँ
मीठे नीम के साथ निष्क्रिय
हो गईं

अब मैं बार-बार अपनी हथेलियों को
नाक के पास लाकर सूँघता हूँ
तो मीठे नीम की गंध
मेरी छाती के बालों में फँस जाती है

कई नदियाँ मेरी जाँघों के ऊपर से
गुज़रकर आगे बढ़ जाती हैं।
और छोड़ जाती हैं मेरे लिए ख़ून से लिखी
कटी-फटी चिठ्ठियाँ

कल मैंने देखा उसी लोहे की बैंच पर
किसी नए प्रेमी-प्रेमिका का नाम उकरा हुआ था
और हम दोनों के गुदे नाम
किसी ने ईंट से
रगड़ दिए थे।

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