अच्छे नहीं लगते ये
पोशाक अब मुझे…

एक अलग ही धब्बे हैं इन पर…

जाति-धर्म के रिमार्क से भरे पोशाक
गरीबी-अमीरी का भेद जताते पोशाक
पोशाक जो चिपक गये हैं
रूहों को….
आत्मा पर बड़े ब्राँड की तरह
राज करते धर्म के पोशाक…

रोज जब भीड़ से घर आता हूँ तो
लटकाना चाहता हूँ उन्हें मैं;
कोई कील के सहारे लटकते
और
कह देना चाहता हूँ
यही है अस्तित्व तुम्हारा…

इन्हें तो मैं
लटकाना चाहता हूँ
धर्मनिरपेक्षता की अदालत के बीचोंबीच एक फाँसी के फंदे पर…

नहीं भाते हैं ये मुझे..
मेरे अंदर के मनुष्य को मार
धर्म का जोड़ा पहने
ये मुझे नहीं जाने देते
चर्च, गिरजाघर या मस्जिद
क्योंकि
वहाँ भी होते हैं बहुत सारे पोशाकगोस्त लोग
जो एक
खूनी नजर से देखते हैं
मेरी पोशाक को….

इन नजरों से भाग जब भी उतार देता हूँ मैं मेरी पोशाक
और उस नंगे बदन को
जब नहीं चिपकती धर्म की बास
तब खुले मन से रगड़कर
मैं धोना चाहता हूँ;
दिनभर की उस पोशाक से
मेरे जमीर पर चढ़ा
मेरे धर्म का मैल…

कभी-कभी लगता है
समाज भी एक दिन हो जाये नंगा और
सब के सब धो डालें अपने-अपने धर्म का मैल
और साफसुथरी कर दें
अपनी-अपनी पोशाक
और अगली सुबह निकलते वक्त
निकलें वो सभी मानवता की नयी पोशाक पहने…
वो होनी चाहिए इतनी सफेद कि
धर्म के रंग खेलते पुरातन धर्म के रंगागर भी दाग न लगा सकें अपने-अपने धर्म के मैल का
उस साफसुथरी पोशाक पर…