कंकरीट जलता है
जलाता है शहर को
चिलचिलाती दोपहर में
हाड़ तपती है सड़क पर,
परिंदा उड़ता है, पंख अपने जलाता है
तड़प कर प्राण रह जाती उसकी
पानी की बूँद न पाता है
ये प्रकोप भी है प्रकृति का
उसके अभाव का है अभिशाप
पक्षी ढूंढता है मिल जाये ठौर कोई
बिन वृक्ष, बिन झाड़ निराश हो जाता है
प्रकृति का प्रेम इतर इसके
तनिक भी मिला अगर आश्रय
तो पत्थर पर भी छा जाता है
चूम लेती हैं लताएँ, उस रोड़े को भी
जो उसके दायरे में आता है।

अनुपमा मिश्रा
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