कविता अंश: प्रवाद पर्व
महानुभावो!
उस अनाम साधारण जन के
तर्जनी उठाने में
सम्भव है
कोई औचित्य न हो
परन्तु
चूँकि वह तर्जनी अकेली है
अतः उसकी सत्यता पर सन्देह भी स्वाभाविक है
लेकिन
इतिहास के प्रवाह से अकेला पड़ जाना
किस तर्क से दोष है महानुभावो?
वह व्यक्ति ग़लत हो सकता है
पर उसे विद्वेषपूर्ण बताना
हमारी अमानुषिकता होगी।
और
इस अकेलेपन की स्थिति को
दण्डित करना तो
नितान्त अन्याय होगा।
स्वाधीनता या
अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का दुरुपयोग
यदि अनुत्तरदायित्वपूर्ण वाचालता है
तो, महानुभावो!
कायरतापूर्ण सहमति
उससे भी बड़ा दुरुपयोग है।
असहमति का अर्थ
निरंकुशता
अराजकता या राजद्रोह नहीं होता
और वह साधारण जन
क्या निरंकुश है?
क्या अराजक है??
क्या राजद्रोही है???
निश्चय ही
असहमति भी एक मत है
अभिव्यक्ति धारणा है।
रावण के लिए
विभीषण की असहमति
भय का कारण थी,
क्यों थी?
इसलिए कि
इतिहास से उठाकर फेंक दिए जाने का
उसे भय था
परन्तु
क्या मेरे लिए
ऐसा कोई भय है?
और यदि है
तो महानुभावो!
मुझमें और रावण में तब कोई अन्तर नहीं।
या तो राष्ट्र का प्रत्येक सदस्य स्वाधीन है
या फिर स्वाधीनता
केवल कपोल-कल्पना है।
शंका का उत्तर
केवल निर्भयता ही हो सकती है
और व्यक्ति—
पद, मर्यादा, अधिकार
सब कुछ का त्याग कर ही
निर्भय हो सकता है।
नरेश मेहता की कविता 'माँ'