मन की
उथली अशांत परत के
नीचे छुप जाते हैं
दुख के अनावेशित
दृष्यमान अचुम्बकीय ध्रुव
स्वरों में
कुलबुलाते हैं
भंगिमाओं में
उतराते हैं
तार तार हो जाते हैं
सुखों के
अयस्क का अदृश्य
उत्तरी चुम्बक
खींच नहीं पाता
दुखों का बिखरा दक्षिण
अनाकर्षक
अक्षमता पर सवार हो
भटकता है विषाद
प्रतिकर्षित मरुस्थल की
अनेक दिशाओं में
चुम्बकत्व के
शून्य की ओर
एकल दिशा में
संरेखित सुख
चक्रीय त्वरकों के
उच्च निर्वात में
दुखों से टकराकर
अपना उर्जाबल
नष्ट नहीं करता
सुख का
चतुर्ध्रुवी चुम्बक
सम्मोहक सक्षमता के
संवेग मे लम्बवत
मन के गहरे शांत तलों पर
उल्लासित गूँजता है
अपने ध्रुवों का
बल जाने बिना
हम चुन नहीं पाते
आकर्षण के तमाम आयाम
न ही कर पाते हैं
प्रतिकर्षण का प्रतिरोध
और बियाबान
मरुभूमि की
मारीचिका में
डबडबाई आँखें
खोजती हैं सम्मोहन का
खारा विलाप..
〽️
© मनोज मीक