मेरी तबीयत कुछ नासाज़ है
बस ये देखकर कि
ये विकास की कड़ियाँ किस तरह
हाथ जोड़े भीख मांग रही हैं
मानवता के लिए

मैं कहता हूँ कि
बस परछाईयाँ बची है,
अपना अस्तित्व टटोलते
मर चुका है मानव
और साथ-साथ मानवता भी,
उसी बाज़ार में जहाँ
रखी थी पहली बिसात अपनी
दो जून की रोटी जोड़ने को,
रातें छोटी पड़ चुकी हैं
या यूं कह लें कि बची ही नहीं,
सोच अपाहिज है;
आज आदम ही आदमखोर है;
जला दी जाएं या दफना दी जाएं
वो चंद लाशें;

तरोताजा सुर्ख लाल दीवारें,
दरख़्त, दरिया, समंदर और
उन्हीं चीखती आवाजों से लिपटी
और माँस के चीथड़ों को
ढोती इस धरती ने अपनी
त्रिज्या समेटनी शुरू कर दी है;

नाप लो चाँद से धरती की दूरी;
और पहुँच जाओ मंगल पर,
उसके पृष्ठ क्षेत्रफल का स्थापत्य
तुम्हारी मानवता पर तब तक प्रश्न
उठता रहेगा जब तक
इस पूर्णिमा और उस अमावस्या
के बीच वो चिराग़
जो किसी की अमोघ तपस्या को
अपना सार मान जल रहे थे,
आज अपने माँ के अंक में ही दम तोड़ रहे हैं;

सुना दो! कहानियां लाख इतिहास की;
लेकिन इतिहास की इबारत आज जो
लिख रहे;
नीलाम होंगी कल उसी चौराहे
जहाँ खड़े हो तुमने अपने अंतः का
विनिमय शुरू किया था
और एक ऐसे युद्ध का एलान किया था
जिसने तुम्हें और तुम्हारी
मानवता को चंद शस्त्रों का गुलाम बना डाला।

आदर्श भूषण
आदर्श भूषण दिल्ली यूनिवर्सिटी से गणित से एम. एस. सी. कर रहे हैं। कविताएँ लिखते हैं और हिन्दी भाषा पर उनकी अच्छी पकड़ है।