मैं लिख के चूमूँ
हथेली पर तुम्हारा नाम
जैसे चूमती है ओस घास की नोक
और जज़्ब होती है अपने ही उद्गम में
मैं भी समाहित हो जाऊँ तुम में जबकि
न मिलते हो हमारे नामों में एक भी अक्षर

मैं ढूँढती हूँ तुम्हें भास्कर में
जबकि तुम हो सुधाकर
अलसुबह छोड़ जाते हो घरौंदा मेरा
आते हो तारों को लिए संग
मैं रात की स्याही से लिखती हूँ
उजास के गीत, पर हर संक्रमण
मकर सक्रांत-सा शुभ नहीं
कि धुल जाए अश्रु संग सारे अवसाद

हो सके तो,
तुम बिताओ कभी मेरे संग एक पूरा दिन
भोर संग साथ चलो और देखो दोपहर
देखो! साँझ में कैसे घुलती है रोशनी
और बिखरती है कैसी गोधूलि छटा, तब
चाँद भी होता है ज़रा उत्सुक और देखता है
बिन तारों के आँचल वाली
हरित धरा की स्वर्णिम देह!

नरेन्द्र शर्मा की कविता 'आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे'

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