‘Prem’, a poem by Sapna Shrivastava
उम्र की दहलीज़ जब तीस-पैंतीस के पार सरकती है
तो नज़रें अशेष प्रेम से भी ज़्यादा
शेष दायित्व देखती हैं,
आकाँक्षाओं की आकाशगंगा
नज़रों से धूमिल होकर
कर्त्तव्य-पथ पर केंद्रित होती है
चाय की चुस्कियों के साथ
लगते क़हक़हों की जगह
तब अख़बार ले लेता है,
गीले बालों की बूँदें तब मन नहीं भिगोतीं
वरन उन्हें जल्दी होती है सूख जाने की
प्रेमिल मान-मनुहार मोहित नहीं करते तब
ज़िम्मेदारियाँ हम पर नज़रें जमाए रहती हैं,
आज की ख़ुशी तिरोहित हो जाती है
कभी न आने वाले कल के सुख की चाह में
माना कि हर उम्र के अपने दस्तूर होते हैं
अपनी ज़रूरतें होती हैं
अपनी प्राथमिकताएँ होती हैं
पर प्रेम तो सीमाओं से परे है
फिर सीमाएँ उम्र की हों या दायित्वों की
प्रेम नहीं छलता कभी भी दायित्वों को
मुँह नहीं फेरता ज़िम्मेदारियों से
नज़रें नहीं चुराता कभी भी अपने फ़र्ज़ से
कंटक नहीं बनता कभी भी कर्त्तव्य-पथ का
प्रेम भरी हल्की-सी मुस्कान हौसला ही देती है
दायित्वों को पूरा करने का,
प्रेम भरा हल्का-सा स्पर्श
हर लेता है तमाम परेशानियों को,
प्रेम से रंगे शब्दों में जादू है
हर गढ़ को जीत लेने का
प्रेम से विश्वास है
शक्ति है
हौसला है
और जीवन भी है
तो कुछ पल प्रेम के सहेज लेने चाहिए
उम्र के हर पड़ाव पर
कि चिर निद्रा में जाने के बाद भी
प्रेम अशेष ही रह जाता है
और दायित्व शेष ही रह जाते हैं…
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