वो
सम्वेदनशील है
गम्भीर है
पवित्र है
सम्पूर्ण है
अपने आप में एक संस्थान है,
हाँ, निःसंदेह वो प्रेम ही है
जो इस सृष्टि में सदैव विराजमान है।

वो पनपता है
समग्र व्याकुलताएँ समेटे
साँस लेता है घुटन में भी
भाँप लेता है अपनी जगह
जहाँ पनप सके वो
स्नेहपूरित मिट्टी में
नील गगन तक
पसारता अपनी बाहें
समेटा समग्र सृष्टि को
किन्तु!
क्या प्रेम
सह पाएगा अपेक्षाओं का भार?
क्या स्वास भर पायेगा अपने उर में?
थिरकेगा फिर संगीत पे
या
फिर मूक बन
होगा
अपेक्षाओं का गुलाम?