‘Prem Eknishth Hota Hai’, a poem by Amar Dalpura

प्रेम एकनिष्ठ होता है
पीड़ाएँ बहुवचन होती हैं

हल्का-सा स्पर्श
छूने की परिभाषा को बदल जाता है
प्रेम की भाषा नहीं होती
इज़हार के शब्द नहीं होते हैं
प्रेम इस तरह होता है
जैसे वाक्य को उल्टा पढ़ा जाता है

दुःख की रेखाएँ
होठों पर उगकर
हाथ ही हाथ में हरी हो जाती हैं

चूमने की इच्छा
होठों से रिसकर
आत्मा में बहती रहती है

नींद में आँखें सोती हैं
हृदय रंगीन सपनों की
चौकीदारी करता है

बात इस तरह करते हैं
जैसे वो कविता लिखते हैं
आवाज़ों का हुनर, अर्थ को पता है
मौन की पीड़ा, शब्द जानते हैं

तुम बोलते क्यों नहीं हो?
तुम सुनती क्यों नहीं हो?
याद जाती क्यों नहीं है?

प्रेमी उसी तरह मरते हैं
जैसे सवाल, उत्तरों की उम्मीद में
रोज़ मरते हैं!

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