1

प्रेम से क्रोध तक
आग से आश्रय तक
विश्वास करने के विपरीत क्या है?
उसके लायक़ भी कुछ नही
जैसे चाँदी की एक शानदार सुई चमकती है सफ़ेद परिधि में
प्रेम अपनी वक्रता पर घूमता है
जो अकोणीय अक्षांश पर
प्रेम के प्रिज़्म को दूर से देखता है
प्रिज़्म रंगहीन है और देह को पारदर्शी बनाता है
जैसे चंद्रमा का पृष्ठभाग पारदर्शी हो जाता है
मगर सतह नम रहती है

2

प्रेम परवलयी है जिसकी डिस्क पर
सभी हवाओं की आग पंक्तिबद्ध है
एक लड़की डिस्क पर खड़ी है
अंतरिक्ष ठोस पानी की तरह काला और खुरदरा है
और सभी दिशाओं में बढ़ रहा है
उस लड़की को चीरते हुए

3

अवचेतन के भेड़ से विचारों को खींचना
और एक व्याकरण में गूँथना
मानवीय अर्थों में यह खींचने का संघर्ष है
हमारे हर प्रयास का मायना भाषा से शुरू होता है
भाषा की ऊन को कातने और सलाइयों
को चलाने के सलीक़े हम सीख नहीं पाए
सटीकता के कम्बल की
इस झिरमिर शीत में जब अधिक आवश्यकता है
तब वह नदारद है

4

मैंने बर्फ़ के कुछ बादल बनाए सुदूर आकाश में
और कल्पनाओं के कुछ फाहे टाँक दिए
अब हाथ में तकली लेकर
धोरों की एक छोरी
बर्फ़ के बादलों की सैर करती है

5

मैं अपने आध्यात्मिक माधुर्य से मोहित हो गई
और फिर ठहर गई
जब भोर के पर्दे उठ जाते हैं
मेरी नसों में कस्तूरी धागे पंक्ति-दर-पंक्ति
ताने-बाने के लिए स्वतः तन जाते हैं
प्रेम के ग़लीचे पर
सर्वोत्कृष्ट प्रतिकृति उकेरने हेतु
मैं एक जुलाहण बन जाती हूँ

6

आधे वयस्क चंद्रमा और सूर्यास्त ने अपनी-अपनी पोशाकें बदल ली हैं
जब आपने रेगिस्तान कहना सीखा तो इन्होंने अपना धुंधला चेहरा
और धूल से सने लाल बाल दिखा दिए
जब आपने पानी कहना सीखा तो
इन्होंने पृथ्वी को नाक तक डुबो दिया
लकड़ी के सारे तख़्त बारिश में रोए और रीत गए
टिटहरी ने अपने गीत की लय खो दी
और धूप के एक टुकड़े के लिए वह
नदी-नदी भटकी

7

पानी के ख़िलाफ़
अरावली की ज़ंजीरों की लड़ी जूझती है
जैसे एक शब्द अकेला जूझता है
जो अपनी भाषा को बचाने
लकड़ी के गट्ठर को नही छोड़ पाता
बहता चला जाता है
समुद्र की थाह नापने की प्रतीक्षा करते

8

जहाँ दुनिया छोटे-छोटे चरखों में विकसित होती है
वहीं हम सूत कातने की कला में अविकासशील रह जाते हैं
हमारे शब्दों के चोले ज़्यादा पानी नहीं झेल पाते
हमारे पुलों की तरह
हमारी भाषा की सरहद पर पेड़ नहीं, काँटों की बाड़ उगी है
हमारे शब्दों के अब नये नाम हैं— बाढ़-पीड़ित
हम बिना सीमा के सैनिक हैं

9

एक ओर दुनिया की खिड़की से झाँकना
जैसे ग़ालिब का चाँद झाँकता है आसमान से
अरे! भूरे और धूसर रंग की सांसारिकता
इन रंगों का कोई स्थान नहीं रेनबो में
ग्रहों ने हमारी विफलता को अधिक प्रकाशित किया
हमारे अपराध ब्रह्माण्ड में मिथेन की तरह फैले हैं
अपनी उग्रता में इतना पवित्र नहीं होना चाहिए
पृथ्वी अपने हर ज़हरीले अनुलोम में अपनी देह के घाव का घेरा बड़ा करती है
पृथ्वी के घाव को अपनी खुली छातियों के क़रीब रखो
यह एक कँपकँपाने वाला कूप है
और बाहर सोचने पर मजबूर करता एक विस्तृत आकाश
बादलों के बाद भी जहाँ स्पेक्ट्रम बनते हैं प्रेम के
इंद्रधनुष स्वर्ग और नरक के बीच डोलता है
पृथ्वी हमारे संग अपलक जगती है!

Book by Pratibha Sharma: