प्रेम करती स्त्री देखती है
एक सपना रोज़
जागने पर सोचती है क्या था वह
निकालने बैठती है अर्थ
दिखती हैं उसे आमफ़हम चीज़ें
कोई रेतीली जगह
लगातार बहता नल
उसका घर बिखरा हुआ
देखती है कुछ है जो दिखलायी नहीं पड़ता
कई बार देखने के बाद
प्रेम करती स्त्री
यक़ीन नहीं करती किसी का
कंघा गिरा देती है
दर्पण में नहीं देखती ख़ुद को
सोचती है मैं ऐसे ही हूँ ठीक
उसकी सहेलियाँ एक-एक कर
उसे छोड़कर चली जाती हैं
धूप उसके पास आए बिना निकल जाती है
हवा उसके बाल बिखराए बिना बहती है
उसके खाए बिना हो जाता है खाना ख़त्म
प्रेम करती स्त्री
ठगी जाती है रोज़
उसे पता नहीं चलता बाहर क्या हो रहा है
कौन ठग रहा है, कौन है खलनायक
पता नहीं चलता कहाँ से शुरू हुई कहानी
दुनिया को समझती है वह
गोद में बैठा हुआ बच्चा
निकल जाती है अकेली सड़क पर
देखती है कितना बड़ा फैला शहर
सोचती है मैं रह लूँगी यहाँ कहीं।
मंगलेश डबराल की कविता 'उस स्त्री का प्रेम'