‘Prem Ki Jagah Anishchit Hai’, a poem by Vinod Kumar Shukla
प्रेम की जगह अनिश्चित है
यहाँ कोई नहीं होगा की जगह भी नहीं है
आड़ की ओट में होता है
कि अब कोई नहीं देखेगा
पर सबके हिस्से का एकांत
और सबके हिस्से की ओट निश्चित है
वहाँ बहुत दोपहर में भी
थोड़ा-सा अंधेरा है
जैसे बदली छाई हो
बल्कि रात हो रही है
और रात हो गई हो
बहुत अंधेरे के ज्यादा अंधेरे में
प्रेम के सुख में
पलक मूंद लेने का अंधकार है
अपने हिस्से की आड़ में
अचानक स्पर्श करते
उपस्थित हुए
और स्पर्श करते, हुए बिदा..
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