‘Prem Mein’, a poem by Vikrant Mishra

प्रेम में होते हुए मैं और तुम,
एक आयत के भीतर
उसकी चारों भुजाओं को छूता
एक वृत्त खींचने की कोशिश करते हैं।

इक नया संसार बनाते मैं और तुम,
जहाँ विद्रोह की कल्पना सलीक़े से की जाए,
जहाँ लौ की सदियों तक जलते रहने की सम्भावना हो
वह भी एक बन्द बक्से में।

दुनिया इसे अतिक्रमण कहेगी
अपनी खींची लकीरों का।

कौन जाने!
हमें सज़ा किस बात की सुनायी जाए?

प्रेम करने पर, या फिर
लकीरों को धुँधली करती
बयार बनने की ख़ातिर।

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विक्रांत मिश्र
उत्तर प्रदेश के गोरखपुर से हैं। साहित्य व सिनेमा में गहरी रुचि रखते हैं। किताबें पढ़ना सबसे पसंदीदा कार्य है, सब तरह की किताबें। फिलहाल दिल्ली में रहते हैं, कुछ बड़ा करने की जुगत में दिन काट रहे हैं।