प्रेम में
एक स्त्री
छूटने लगती है
अपने आप से
प्रेम में
एक स्त्री
हल्की हो जाती है
पंख की तरह
इतनी हल्की
कि…
पाँव की पायल भी
उसके कानों से
नहीं टकराती
स्त्री
सीढ़ियाँ लाँघ जाती है
कुछ इस तरह
जैसे उसके पाँव के नीचे
पहिये लगे हों
छत पर
स्त्री
मयूर की तरह हो जाती है
और
बाँहें फैलाकर
बात करती है
झुके बादलों से,
स्त्री और प्रेम
प्रेम और स्त्री
घुल मिल जाते हैं

बीच में
सिर्फ़ निर्वात होता है
एक खालीपन
गूँगा सा!

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