‘Patr Peti, Jise Khole Jane Ka Intezaar Hai’ by Manjula Bist
पता नहीं! जिसने पहली बार ख़त जैसा कुछ लिखा होगा उसे यह अहसास था कि नहीं कि उसने अनजाने में कविताई की है! क्यों लिखी गयी होगी वह तक़रीर? जिसको लिखते वक़्त यह उम्मीद भी हुई थी कि इसे सिर्फ़ वही खोले व सहेजे जिसके लिये तन्हाईयों में दिल ने कोई पैग़ाम भेजा था। शायद कोई दिलो-दिमाग़ अपने किसी ख़ास से ख़ूब नाराज़, फ़िक्रमंद या बेपनाह मुहब्बत कर ख़ुद से आजिज़ हो गया होगा। उहापोह में उखड़ती साँसों व धड़कते दिल से नज़दीक ही उसे कोई ठण्डा पड़ा कोयला मिल गया होगा, शायद बहुत कुछ लिखकर मिटा भी दिया गया था! उसे ज़रूर किसी ऐसे हमशक्ल लगते साथी की तलाश रही होगी जहाँ वह बेहिचक दिल के तालों को खोल दे लेकिन उम्मीद भी करे कि यह बतकही की चाबी उसके ही पास रहे व उसकी दिल की जेबें उधड़कर भी राज़ रहने वाली हैं। ऐसा कहाँ होता है भला… बातें और राज़! बातें तो अपने पतें ख़ुद खोज लेती हैं!
क़ासिद! मुझे ‘पता’ बनने का शौक़ नहीं!
मज़मून बन ख़बर हो जाने से ख़ौफ़ रहा!!
याद कीजिये, आपका पता खोजता हुआ कोई खाकी वर्दीधारी डाकिया, जिसके कँधे से झूलता एक मैला सा झोला, जिसके एक कान में उसने क़लम अटकाकर उसे एक छोटी अलगनी की शक्ल दे दी थी, जो हाथ में कुछ छोटे-बड़े आकार की लिफ़ाफ़े नुमा उम्मीदें व अंदेशें लिए दरवाज़े पर आ खड़ा हुआ था। झुलसाती-पिघलाती धूप, हाड़ कँपाती सर्दी, आँधी-तूफ़ान हो या क़हर बरपाती मूसलाधार बारिश के बाद की दिव्य-नीरवता… हम ने खिड़कियों से कान लगाकर मुख्य-दरवाज़े के खटखटाये जाने का बेसब्री से कितना इंतज़ार किया था। वो पहचानी सी लिखावट या नयी स्याही के रंग में मुस्कराता कोई नया चेहरा… कितना रोमांच! कितनी उत्तेजना! आसपास कई जिज्ञासु नज़रें! लगता था ग्लोब में सिमटी हुई यह दुनिया बहुत छोटी-सी ही तो है जहाँ यह डाकिया व लाल डिब्बे ही हमें आसानी से पहुँचा सकते हैं!
मेरे जहाँ के क़िस्से कहीं खो न जायें!
इसी वास्ते क़दमों ने राह थाम ली है!!
गुज़रते समय के साथ साइकिल चलाते डाकिए कम व वाहनों में भागते कुरियर-बॉय ज़्यादा नज़र आने लगे हैं। तकनीक ने लिखावट की ऊष्मा को टेक्स्ट मैसेज़ में क्या बदला, लगता है किसी अपने को शिद्दत से क़रीब से महसूसने की भी ज़रूरत जाती रही! आज रोज़ कितने लोगों तक हम पहुँच रहें हैं, आभासी भी व वास्तविक भी! लेकिन कितनों को हम उनकी काग़ज़ी लिखावट से पहचान पाते हैं! आज भी किसी अपने का लिखा ख़त याद आ जाए तो लगता है अंगुलियों से कुछ लिपट गया है जिसमें बहुत कुछ मीठा-खट्टा सा स्वाद उतर आता है, कभी कुछ ज़्यादा कसैला भी! आज दरवाज़े की घण्टी डाकिए को नहीं लाती, न मनीऑर्डर अब ज़्यादा इंतज़ार करवाते हैं, न अब किसी जगह से अपने जवाबी ख़त के लौट आने के अंदाज़न दिन कैलेण्डर में गिनने पड़ते हैं, न किसी ख़त के बीच में से कोई छिपी तस्वीर पर्दा किए हुए काँपते हाथों में आती है!
तेरी तस्वीर, जो गुफ़्तगू को राज़ी न थी!
मैंने उसे तक़रीर बना बुतपरस्ती की है!!
डिजिटल होती दुनिया ने भले ही डेटा सेव व डिलीट करने की अकूत क्षमता को मोबाइल में व हमारे भीतर भर दी हो लेक़िन दरवाज़े व देहरी को बहुत उदास कर दिया है, साँझ पड़ने तक ये थकने लगती हैं… किसी लिखावट के इंतज़ार में… आँधी-तूफान व उमस में आते किसी मनमाफ़िक मौसम के लिए! जहाँ सुख-दुःख एक ही रंग के लिफ़ाफ़े में छिपे हुए मिलने आते थे।
आज दरवाज़े के पास टँगी हुई पत्र-पेटी अपने भीतर के ख़ालीपन से घबराकर विदा होना चाहती है, लेकिन यह भी चाहती है कि हम पक्के फ़र्श में बदलते आँगनों के किसी हिस्से में कच्ची मिट्टी को यूँ ही उघाड़कर छोड़ दें ताकि जब वहाँ बारिश के मौसम में मिट्टी की सौंधी ख़ुशबू हमें वापस जाती कुछ पगडण्डियों की याद दिलाने को आमादा हो जाए तो हम उसकी गीली मासूम परतों में अपनी काँपती अँगुली से कुछ बीती हुई दास्तानें व कुछ ख़्वाबों के बीज दबा सकें, जो बेरंग होती पत्र-पेटी को जब-तब एक मुस्कराता डिजिटल ईमोजी ही दे जाए!
ख़ुशक़िस्मत हैं वे वजूद, जिनके हाथों में आज भी उस वक़्त बेसाख़्ता कई आँखें उग आती हैं जब वे दरवाज़े के पास टँगी उपेक्षित पत्र-पेटी को आशान्वित या आशंकित हुए खोलते हैं। दरअसल, ये पत्र-पेटियाँ भी अब हमारी तरह ख़ुद को आसानी से कम ही खोल पाती हैं न, तो इन्होंने भी अपने भीतर एक ख़त लिख छोड़ा है! कभी फ़ुर्सत हो तो इसे अपने टेक्स्ट-मैसेज में जगह देना, क्या पता वहाँ भी कोई कविताई पढ़े जाने को आपकी ख़ूब मुन्तज़िर हो!
मैंने वो सब ही बीतने दिया!
जो तूने मुझसे गुज़रने दिया!!
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