वरिष्ठ साहित्यकार डॉ सत्यनारायण पर माधव राठौड़ का गद्य | Prose by Madhav Rathore about Dr. Satyanarayan
मुझे विशालकाय बूढ़े दरख़्त हॉन्ट करते हैं, क्योंकि इस तरह के पेड़ मुझे गाँव की याद दिलाते हैं।
वे बेहद धीरे चलते हैं। मुझे उनके साथ क़दम मिलाने के लिए अपने क़दमों को धीरे करना पड़ता है। नीम के एक विशाल और वृद्ध पेड़ को देखकर उनसे कहता हूँ- “इस तरह के पेड़ों को देख आपको कैसा लगता है?”
देर तक चुप रहते हैं, मुझे लगा कुछ ग़लत पूछ लिया।
मैं उनकी उदासी को भाँप लेता हूँ, इन दिनों शायद तनाव से गुज़र रहे हैं। कुछ दूर चलने के बाद वे बेहद धीरे से बोलते हैं- “मुझे इस तरह के पेड़ हॉन्ट करते हैं क्योंकि इस तरह के बूढ़े दरख्त मुझे गाँव की याद दिलाते हैं।”
‘हॉन्ट’ शब्द सुनकर मैं अंदर से डर जाता हूँ। क्या स्मृतियाँ किसी का इस कदर भी पीछा करती हैं?
वे लगातार दो-चार सेन्टेन्स में कभी बात नहीं करते, यहाँ तक कि एक वाक्य को भी तोड़कर अल्पविराम के साथ काम में लेते हैं। कई बार तो शब्दों को परोटते हुए वे इतने कंजूस हो जाते हैं कि इशारों से ही काम चलाना पड़ता है।
“क्यों भाई, व्यर्थ में क्यों माथा मारना??” शब्दों के जाल बुनने वालों से पीछा छुड़ाने के लिए उनका यह वाक्य रहता है।
मेरी छोटी बेटी मोर को देख अचानक चिल्लाती है- “मोल मोल…”
वे मुस्कुराते हुए बोलते हैं- “गाँव में पले बढ़े बच्चे की स्मृति में कितना होता है और टू बीएचके वाले शहरी बच्चों के क्या सेव होगा?”
मैं जवाब देता हूँ- “अब उसे कुछ सेव नहीं करना क्योंकि स्मार्टफ़ोन ने आदमी की याददाश्त छीन ली है।”
एक लेखक अपने समय को बदलते हुए अपनी आँख से कैसे देखता है।
हॉस्टल के मोड़ पर फूलों से लकदक रोहिड़े को देखकर कहा कि मुझे एक लेखिका को रोहिड़ा दिखाना है!
हम दोनों ज़ोर से हँसते हैं। दरअसल, उन्हें ज़ोर से खिलखिलाते हुए बहुत कम लोगों ने देखा होगा।
मैं देखता हूँ बेटी पीछे छूट गई है। मैं उसे आवाज़ देता हूँ लेकिन वह मोर, गाय, बिल्ली और तूतू देखने में इतनी व्यस्त हैं कि हमें अपनी वॉकिंग रोकनी पड़ती है।
वे यूनिवर्सिटी हॉस्टल के कैंपस में पेड़ों के लम्बे गलियारे को देखते हुए कहते हैं कि यूरोप में एक सड़क है जिसके दोनों तरफ़ ख़ूब सारे पेड़ हैं जिसे ‘हार्ट ऑफ यूरोप’ कहते हैं।
मैं मन ही मन सोचता हूँ कि हरेक आदमी के चारों तरफ़ ऐसे प्यारे लोगों का गलियारा होना चाहिए ताकि जब वो दिनभर थककर उनके बीच जाए तो अपने फेफड़ों में घणी सारी ऑक्सीजन भर सके।
(जैसा मैंने उनको समझा)
इस्मत चुग़ताई का संस्मरण 'दोज़ख़ी'