कहीं कोई पत्ता भी नहीं खड़केगा
हर बार की तरह ऐसे ही सुलगते पलाश
रक्त की चादर ओढ़े
चीलों और गिद्धों को खींच ले आएँगे
घेरकर मारे जाने वाले
प्रेमरत जोड़ों को
कुचलने के लिए उठा हुआ पत्थर
अपने सम्पूर्ण ख़ौफ़
पूरे वजूद के साथ
पत्थर-युग की हिंस्र
क़बिलाई जुनून लिए
इसी बीसवीं सदी के जंगल में दहाड़ता है
ख़ामोश!
ऐसे ही कुचल दिए जाते रहोगे
ऐसे ही जलती लकड़ियों से
प्रेम को नंगा कर
दोज़ख़ी आग से
झुलसा दिया जाता रहेगा!
किसकी
आख़िर किसकी इजाज़त से
तुमने अपने माथे पर प्रेम का कलंक लगाया
हद है नाफ़रमानी की
तुम्हें हमने अखाड़े दिए
ख़ूनी संघर्षों की गलाकाट होड़ के
तुम
इस धर्म जाति नस्ल नीति नाम के
बाड़ों-रेबड़ से अलग हो
इंसानी बोली बोलने लगे
सुनो नसीहत लो
कहीं कुछ भी नहीं बदला
इस होते रहने के बदले
कहीं खरोंच भी नहीं आएगी
तुम्हारे विरुद्ध उठा हुआ पत्थर
गवाह रहेगा
एक दिन समय के बनैले तीखे दाँत
सारी घटनाओं
तथ्यों सबूतों गवाहियों
आक्रोशों-प्रतिरोधों को चट कर जाएँगे
दूर-दूर तक
हवा में कहीं कोई
गंध
कोई सुगबुगाहट तक नहीं होगी!
नीरा परमार की कविता 'औरत का क़द'