विस्मृत हो चुके किसी जगत के स्थान पर
एक नया विश्व खोजने चलता हूँ और
खो जाता हूँ समय के एक ऐसे मैदान में
जहाँ से बूझ नहीं पड़ता वापसी का पता।

दृष्टि बदलकर देखता हूँ, तो
सारी सृष्टि पलटी नज़र आती है।

एक ऐसी भूल-भुलैया में ख़ुद को पाता हूँ
जिसमें खोना, खोने जैसा नहीं लगता
फिर भी लगता है
कहीं रह गया हूँ थोड़ा—क्या बाहर ही?
पर कहाँ, किसके?
प्राण कण्ठ लाकर आवाज़ें लगाता हूँ,
अज्ञात को पुकारता हूँ
पर कोई उत्तर नहीं मिलता।
मेरी ही पुकार प्रतिध्वनित होती है मुझ पर।

जहाँ हूँ, वहीं एड़ियाँ रगड़ते दम तोड़ देता हूँ
और दम तोड़ने से ठीक पहले
अपने रक्त से लिख जाता हूँ—
“जीवन एक शब्द है बस इस नाम का
जो सचमुच में तभी प्रकाश में आता है
जब मृत्यु की कोख से होता है एक नया जन्म।”