ये बारिशें पुराने लकड़ी के दरवाज़ों को कैसे वज़नी कर देती हैं!!
मानो के ये बुलंद मज़बूत खड़े दरवाज़े,
थक गए हो, जज़्ब करते हुए मुद्दतों का ग़म और तन्हाई!!
थक हार के बंद होते हैं, बड़ी मशक्कत से खुलते हैं!!
खुलते हैं तो लगता है बेज़ार कोई बुज़ुर्ग ज़माने की संगदिली से हो गया हो..
ज़ंजीरो पे बारहा हाथ ले जाने पे बड़े फीके मन से खोल देते हैं सांकल!!
ठीक वैसे ही जैसे किसी बुज़ुर्ग आदमी के काँधे पे कई बार हाथ रखने पर,
वो बुझे दिल से ही सही, मगर राज़ी हो जाता है बात करने को!!
बंद होते वक़्त तो मानो की ये दरवाज़े कोई ग़म की दास्ताँ सुना रहे हो,
समंदर से गहरी, मुद्दतों लम्बी, जो ख़त्म होने को राज़ी ही ना हो!!
बस कुछ ऐसे ही होते हैं शायद ये पुराने लकड़ी के दरवाज़े!