‘Purush Abhishapt Hai’, a poem by Pallavi Vinod
पुरुष अभिशप्त है
जिसने फल को चखा ही नहीं
उसकी मिठास का स्वाद जाना ही नहीं
उस पर फल को नकारने का दोष क्या लगाना!
पुत्र की कामना में
व्रत करती माँओं ने नहीं बताया उसे
बहन का महत्व
नहीं समझाया उसकी परेशानियों को बाँटने का सुख
बालक के रुदन पर
उसे डाँटा गया
लड़के रोते नहीं है
जिज्जी की विदाई पर वो ख़ूब बिलखा
पर छत की मुण्डेर पर
क्योंकि उसके आँसू उसके पुरुषत्व पर प्रश्नचिह्न लगा देते थे।
सयानी होती छोटी बहनों को हड़काना सिखाया गया
लेकिन उसके पेट दर्द की वजह छिपा
वंचित किया गया उसे उस स्नेह से
जो दर्द से तड़पती बहन के मस्तक पर हाथ रख
हृदय में प्रवाहित होता है,
बड़ी भाभी की जचगी पर उसका ख़्याल रखता युवक
सन्देह के घेरे में था
एक निश्चित अवधि पश्चात माँ की गोद में सोता युवक
लोगों के परिहास का केंद्र बिंदु बन सहम गया था।
पत्नी प्रणय सम्बन्धों के लिए बनी थी
पर उसके लिए व्याकुलता प्रेम नहीं
ग़ुलाम होने की निशानी थी
अँधेरी रातों में पुत्र का मुख देखने वाले पुरुष के लिए
दिन के उजालों में अपनी ही सन्तान अनजानी थी
किशोर होती तनया के सपने सुनने का सुख
पिता कभी जान ही नहीं पाए
रुनुक-झुनुक करती बेटियाँ मन को कितना भी लुभाएँ
उन्हें गोद में उठाकर चूमना सर्वदा वर्ज्य था।
पुरुष को कठोर बनना था
तन व मन दोनों से
उसे परिवार की आवश्यकताओं की पूर्ति करनी थी
उसकी अपनी आवश्यकताएँ बाहर की ओर मुड़ने लगीं
वो ढूँढता रहा ख़ुशी नयी देह के विन्यास में
वहाँ न मिली तो पूज्य के शिलान्यास में
मानवीय सम्बन्धों का सुख
भोग विलास व मदिरा में ढूँढता पुरुष
कभी भटक गया वन में
कभी अटक गया अहम में
प्रेम से वंचित पुरुष, प्रताड़ना का दोषी बन
पुरुषोचित अहंकार का उपालम्भ सहता रहा।
उसने प्रेम बाँटने पर होते सुख का स्वाद चखा ही नहीं
अपने पास बैठे रिश्तों को कभी आलिंगन में लिया ही नहीं
जाना ही नहीं सब कुछ होकर भी मन क्यों अतृप्त है
वात्सल्य व करुणा से रिक्त पुरुष
वास्तव में अभिशप्त है।
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