काँसे के थाल
घनघनाए
चारदीवारी में
ऊँची अटारी पर
पुरुष के जन्म पर।
स्त्री के हाथों का
कोमल स्पर्श
शायद गिरवी था
पुरुष के यहाँ
तभी तो
थाली पर पड़ती थाप में
पौरुष था मुखर!
उस दिन
दिन-भर
बँटीं भरपूर
मिठाइयाँ, बधाइयाँ
मिलीं मगर पुरुष को!
बाप-दादाओं ने
मरोड़ी मूँछें
चौक-चौराहे
नये सम्बोधनों पर,
भीतर
स्त्री लुटाती रही
ममता
नवजात पुरुष पर!
किन्नर भी
नाचे पुरुष के घर
स्त्री का घर
नहीं उच्चारा किसी ने।
क्या होता नहीं
स्त्री का घर
स्त्री का वंश!
ओम पुरोहित 'कागद' की कविता 'सन्नाटों में स्त्री'