ऐसा नहीं है कि
मैंने महीनों तैयारी की हो!

जो भी हुआ
मूर्छा जैसे क्षणों में हुआ,
अगर तनिक भी भान होता
तो क्या यह मैं कर पाता?
नहीं कर पाता
क्योंकि
मैं प्यार करता हूँ उससे,
क़त्ल कैसे कर सकता था उसका।

नहीं.. मैं हत्यारा नहीं हूँ!

एक इंसान की जान ले लेने से भी
घिनौना क्या होगा?
किसी को जीते जी मार देना,
समझते हैं न आप!

किसी के एहसासात का किया है क़त्ल;
जिस एहसास के सहारे
तिल-तिल मरती वह
पल-पल जीने लगी थी जीवन अपना।

हाँ.. मैं हत्यारा हूँ।
सिर्फ क़त्ल करने के लिए क़त्ल नहीं किया।

फिर भी
मैं हत्यारा नहीं उसके भरोसे का
क्योंकि
उसने कहा है,
“तुम पर भरोसा करने के अलावा कोई चारा नहीं मेरे पास!”

विक्रांत मिश्र
उत्तर प्रदेश के गोरखपुर से हैं। साहित्य व सिनेमा में गहरी रुचि रखते हैं। किताबें पढ़ना सबसे पसंदीदा कार्य है, सब तरह की किताबें। फिलहाल दिल्ली में रहते हैं, कुछ बड़ा करने की जुगत में दिन काट रहे हैं।