शरणकुमार लिम्बाले की आत्मकथा ‘अक्करमाशी’ से उद्धरण | Quotes from ‘Akkarmashi’ [The Outcaste], an autobiography by Sharan Kumar Limbale
“आत्मकथा का अर्थ जो जीवन जीया है, भोगा है और देखा है, इतने तक ही सीमित नहीं है; अपितु जो जीवन यादों में समाया हुआ है, वही आत्मकथा है। ये यादें सच्ची घटनाओं से जुड़ी रहती हैं। काग़ज़ पर शब्दों का रूप लेकर ये यादें प्रतिभा के पैरों से चली आती हैं।”
“पेट तो श्मशान-भूमि की तरह है—कितने भी मुरदे जलाते रहो, उसे और मुरदे चाहिए। माँ चिढ़कर कहती थीं, ‘तेरा पेट है कि कुआँ! टोकरी क्यों नहीं बाँध लेता मुँह पर?'”
“‘लजाइए नहीं, आराम से खाइए!’ परोसने वाले क़तारों के पास से आवाज़ देते हुए गुज़रते, ‘सब्ज़ी’, ‘खीर’ कोई पूछता, ‘चपाती चाहिए?’, ‘घी लीजिये।’ हम सब इन आवाज़ों को सुनते तथा भूख से बेहाल हो जाते। पेट कान तक आ जाते, पेट कान बन जाते। पेट क़तार के आदमी हो जाते।”
“आश्चर्य कि उन्हें महारों के घर की शराब अच्छी लगती, पर पानी नहीं। यहाँ की औरत अच्छी लगती, पर उसके हाथ की रोटी नहीं।”
“मनुष्य धर्म को रोकता है अथवा धर्म मनुष्य को? धर्म का दायरा बड़ा है कि इंसानियत का? मनुष्य के लिए धर्म है कि धर्म के लिए मनुष्य? मनुष्य धर्म को विकृत करता है अथवा धर्म मनुष्य को? धर्म, जाति और बिरादरी को त्यागकर क्या मनुष्य जी नहीं सकता?”
“रोटी आदमी जितनी। रोटी आकाश जितनी। रोटी सूर्य की तरह प्रखर। भूखे आदमी से बड़ी। भूख सप्त पाताल से भी गहरी। आदमी रोटी जितना, भूख आदमी जितनी। पेट आदमी से गहरा। एक पेट का अर्थ है—एक पृथ्वी। पेट होता है इतना-सा, पर पूरी दुनिया खाकर उसने डकार दी है। भूख न होती तो क्यों होतीं लड़ाइयाँ, चोरियाँ, मार-पीट? पेट न होता तो क्या होते पाप-पुण्य? क्यों होते देश, सीमा, नागरिक, संसद, संविधान आदि-आदि। पेट से तो जन्म ले चुकी है दुनिया! दुनिया के ये सम्बन्ध, माँ-बाप, भाई-बहन इत्यादि-इत्यादि।”
“हमें गाँव के बाहर खदेड़ने वाला ईश्वर, धर्म या देश हमें मान्य नहीं है।”
“मैं नागी से और नागी मुझसे कह रही थी, ‘माँ का पति गुजर गया है।'”
“गाँव के पटेल की रखैल होकर भी भुखमरी की हालत मुझ पर आ गई है। मेरी ज़िन्दगी तुमने बरबाद की!”
“ऐसा क्या है हमारे स्पर्श में? हमारे स्पर्श से पानी अपवित्र हो जाता है, अन्न अपवित्र हो जाता है, घर अपवित्र हो जाता है, कपड़े अपवित्र हो जाते हैं, पनघट अपवित्र हो जाता है, श्मशान-भूमि अपवित्र हो जाती है, होटल-ढाबा अपवित्र हो जाता है। ईश्वर, धर्म और मनुष्य भी अपवित्र हो जाता है।”
“मनुष्य के जनम के बाद श्मशान उसे छूने के लिए उनका सतत पीछा करता रहता है। मृत्यु का यह खेल अपने पर न उलटे, इसलिए मनुष्य भी जीवन मैदान में सतत दौड़ता रहता है, गिरता रहता है।”
“एक खेल चल रहा है सी-सॉ का। जीवन की भी ऐसी ही स्थिति है। चढ़ाव-उतार। यह कितनी ऊँचाई कि ऊपर देखूँ कि सिर पर की टोपी नीचे गिर जाती है और यह कितनी गहराई कि नीचे देखूँ कि आँखों में अँधेरा छा जाता है।”
“मेरे जनम को ही अगर अनैतिक घोषित किया गया हो तो मैं किन नीतियों का पालन करूँ?”
“मेरा दुःख बुद्ध द्वारा देखा गया दुःख है। मैं आज उसी दुःख को झेल रहा हूँ। इसके बावजूद मेरे भीतर का बुद्ध जाग क्यों नहीं रहा है?”
“प्रत्येक का उदर उसके हाथ पर। उदर ही उसके लिए सब कुछ। पेट की आग बुझाना ही उनके लक्ष्य की सीमा।”
“आप पर प्रत्यक्ष रूप से टूट पड़ने की, हल्ला बोलने की ज़रूरत नहीं होती। जातिवादी वातावरण ही ऐसा होता है कि आप उसके नीचे दब जाते हैं।”
“मुझे मेरी दरिद्रता की अपेक्षा अस्पृश्यता अधिक भयावह और अपमानजनक लग रही थी।”
“मेरी कविता मेरी अपनी जाति का आयडेंटिटी कार्ड ही थी।”
“बाबासाहब की प्रतिमा देखता तो लगता कि सात जनम की माँ से भेंट हो गई है।”
“मराठी के एक व्यंग्य कवि ने लिखा, ‘महानगरों में दलितों ने पुस्तकें महँगी कीं और बामनों ने मटन महँगा किया। जो कल तक पढ़ नहीं पा रहे थे, वे पढ़ने लगे और कल तक जो शाकाहारी थे, वे अब माँसाहारी हो गए।'”
“भाई-बहन का नाता न होता तो मैं ही इनमें से किसी एक के साथ विवाह कर उसे सुखी करता।”
“मेरे पिता भी हो सकते हैं—यह कल्पना बड़ी विचित्र लगी।”
“किसी के लिए जीना, यह भाव ही जिन्दगी को जीवंतता प्रदान करता है।”
“‘दलित-आत्मकथा’ मध्यवर्गीय पाठक पढ़ते रहते हैं, यह सही है। जिनके लिए लिखा जाता है, वे पढ़ते नहीं, यह अर्धसत्य है। कारण, जिनके लिए लिखा जाता है, वह समाज आज भी अशिक्षित है। उन्हें शिक्षा से वंचित रखा गया है। वे पढ़ कैसे सकेंगे? मध्यवर्गीय पाठकों को ही इसे पढ़ना चाहिए। तभी उन्हें दलितों के प्रश्न समझ में आएँगे। हमारी यातना, वेदना और व्यथा से समाज जुड़ जाए, इसीलिए तो हम लिख रहे हैं। हम इस साहित्य की ओर नवजागरण के माध्यम के रूप में ही देखते हैं।”
“‘यह जीवन मेरा नहीं है। मुझ पर लादी हुई यह ग़ुलामी है।’ यह नकारात्मक स्वर इन आत्मकथाओं के मूल में है। ये आत्मकथाएँ एक ओर अन्याय-अत्याचार की यातनामय यादें रेखांकित करती हैं तो दूसरी ओर प्रस्थापित संस्कृति से प्रश्न पूछती हैं। ‘इस समाज-व्यवस्था के हम शिकार हुए हैं’—ऐसा इनका कोरस होता है। ये आत्मकथाएँ एक ओर यह इशारा करती हैं कि यह समाज-व्यवस्था सड़ी-गली है तो दूसरी ओर यह व्यवस्था अब बदलनी चाहिए, ऐसा संकेत भी वे करती हैं। जैसे कोई बीमार व्यक्ति वैद्य को अपनी परेशानियाँ, अपनी व्यथा बतलाता रहता है, ठीक उसी प्रकार दलित-आत्मकथाओं ने कई सांस्कृतिक प्रश्न उठाए हैं। इन प्रश्नों को हाशिए पर रखकर अगर हम इन आत्मकथाओं की कलात्मकता, साहित्यिक मूल्यवत्ता आदि पर चर्चा करने बैठें तो यह सांस्कृतिक ग़बन ही होगा।”
“संतामाय बहुत ग़ुस्सैल थीं। घर पर माँ की जचगी हो चुकी थी। हम बाहर खेल रहे थे। इन दिनों संतामाय हम पर बहुत ग़ुस्सा करतीं। कहतीं, ‘शिशु को किसी का स्पर्श नहीं होना चाहिए। किसी के भी स्पर्श से उसे भूतबाधा हो सकती है।’ वह हमें बहुत गालियाँ देतीं। इन दिनों वह किसी को छूती नहीं। बाहर से आने के बाद झोंपड़ी में प्रवेश करने के पूर्व कहतीं, ‘पीछे मुड़कर थूको ओर फिर भीतर आओ।’ पैरों पर पानी डाले बग़ैर वह भीतर आने ही नहीं देती। भीतर जाने के बाद शरीर पर गोमूत्र छिड़कती। गोमूत्र लाने का काम मेरा या नागी का होता। हम लोग लोटा लेकर गायों के पीछे दौड़ते। गाय मूतती ही नहीं। लोटा भरता नहीं। मैं परेशान हो जाता। इच्छा होती, लोटे में ख़ुद ही मूतकर ले जाऊँ; पर साथ में बहन होती थी। बैल का मूत चलता नहीं था। गोमूत्र इतना पवित्र कि सारी अपवित्रता पवित्रता में बदल जाती। गाय की योनि को स्पर्श करके हम उसे सहलाते और कहते—’मूत, मूत।’ तब गाय थोड़ा-सा पेशाब करती। काफ़ी कोशिश के बाद हमें गोमूत्र मिलता।”
“जिस दिन शेवंता की आँखों से परिचय हुआ, उस दिन से बेचैनी भी ख़ूबसूरत लगने लगी। शेवंता की माँ जहाँ काम मिलता, वहाँ चली जाती। पिता गड्ढे खोदता और शेवंता घर पर तीन भाइयों को लिए बैठी रहती, उन्हें सम्भालती। शेवंता थी दस-बारह साल की। वर्ष-डेढ़ वर्ष में उसका गौना हो जाएगा। उसका छोटा भाई हमेशा उसकी बाँहों में होता। माँ बच्चों को जन्म देती और शेवंता बच्चों को सम्भालने का काम करती। दो छोटी बहनें हमेशा रोती हुई उसके पीछे लगी रहतीं। केवल दो रोटियाँ रखकर माँ-बाप घर से निकल जाते। एक-एक निवाला खाकर लोटा-लोटा पानी पीकर जीने वाली यह बस्ती! शेवंता कभी खुलकर हँसती नहीं थी। बालों को न कभी तेल मिला न पानी। माँ-बाप की ज़िन्दगी में शेवंता कोल्हू का बैल बन चुकी थी। उसकी आँखों में गाय की आँखों जैसी निरीहता झलकती थी। उसकी माँ फटी साड़ी को बार-बार सीकर पहनती। पिता अनेक थिगलियों की कमीज़ पहनता। दोपहर में वह बहनों के बालों में जुएँ ढूँढने बैठती। मैं शेवंता की ओर देखता; जैसे किसी दुर्घटना को देख रहा होऊँ।”
“आरक्षण के विरोध में नारा लगाने वालों से यह प्रार्थना है कि वे पहले जातीयता को ख़त्म कर दें। वे ख़ुद अछूत का जीवन जिएँ। गाँव के बाहर आकर झुग्गियों में रह लें। शराबी पिता के पैरों के निकट भूख से छटपटाते हुए अध्ययन करें और तब यह शिकायत न करें कि अन्याय हो रहा है। सवाल यह है कि मनुष्य के रूप में हमें स्वीकार क्यों नहीं किया जाता? इसी कारण तो सवर्ण हमें शत्रु लगते हैं। लड़के मुझे ‘अरे’, ‘अबे’ कहकर सम्बोधित करते हैं और मैं उन्हें ‘आप’ कहता हूँ। मेरी जिह्वा के आस-पास मनु के अगणित कानून चिपकाए गए हैं। पत्नी को पीटने वाला हाथ अलबत्ता यहाँ कमज़ोर पड़ जाता है।”
दलित-लेखक ज़िन्दगी-भर झोंपड़ी में ही रहें, यह कैसा दुराग्रह?