भगवतीचरण वर्मा के उपन्यास ‘चित्रलेखा’ से उद्धरण | Quotes from ‘Chitralekha’, a book by Bhagwaticharan Verma
“हम न पाप करते हैं और न पुण्य करते हैं, हम केवल वह करते हैं जो हमें करना पड़ता है।”
“प्रत्येक मनुष्य सुख चाहता है। केवल व्यक्तियों के सुख के केन्द्र भिन्न होते हैं।”
“कुछ-कुछ समझने के कोई अर्थ नहीं होते। यदि तुम समझ सकते हो तो पूर्णतया, नहीं तो बिल्कुल ही नहीं।”
“संसार में पाप कुछ भी नहीं है, वह केवल मनुष्य के दृष्टिकोण की विषमता का दूसरा नाम है।”
“उस व्यक्ति से कोई बात न छिपानी चाहिए, जिससे स्नेह हो।”
“प्रेम के क्षेत्र में अपवित्रता का कोई स्थान नहीं है।”
“प्रेम का अर्थ होता है निःसीम त्याग।”
“संसार क्या है? शून्य है। और परिवर्तन उस शून्य की चाल है।”
“मनुष्य की विजय वहीं सम्भव है जहाँ वह परिस्थितियों के चक्र में पड़कर उसी के साथ चक्कर न खाए, वरन् अपने कर्त्तव्याकर्त्तव्य का विचार रखते हुए उस पर विजय पाए।”
“मनुष्य सुख और दुःख सहने के लिए बनाया गया है; किसी एक से मुख मोड़ लेना कायरता है।”
“व्यक्तित्व की उत्कृष्टता किसी भी बात को काटने में नहीं होती, उसे सिद्ध करने में होती है; बिगाड़ने में नहीं होती, बनाने में होती है।”
“भूत और भविष्य, ये दोनों ही कल्पना ही चीज़ें हैं जिनसे हमको कोई प्रयोजन नहीं।”
“जिसको साधारण रूप से विराग कहा जाता है, वह केवल अनुराग के केन्द्र को बदलने का दूसरा नाम है।”
“प्रकाश पर लुब्ध पतंग को अन्धकार का प्रणाम है।”
“प्रत्येक व्यक्ति एक विशेष प्रकार की मनःप्रवृत्ति लेकर उत्पन्न होता है—प्रत्येक व्यक्ति इस संसार के रंगमंच पर एक अभिनय करने आता है। अपनी मनःप्रवृत्ति से प्रेरित होकर अपने पाठ को दुहराता है—यही मनुष्य का जीवन है।”
“नहीं, मैं व्यक्ति से नहीं मिलती। मैं केवल समुदाय के सामने आती हूँ, व्यक्ति का मेरे जीवन से कोई सम्बन्ध नहीं।”
“मनुष्य की अंतरात्मा केवल उसी बात को अनुचित समझती है, जिसको समाज अनुचित समझता है। इसलिए यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि अंतरात्मा समाज द्वारा निर्मित है। मनुष्य के हृदय में समाज के नियमों के प्रति अन्धविश्वास और पूर्ण श्रद्धा को ही अंतरात्मा कहते हैं। समाज से पृथक उसका कोई अस्तित्व नहीं है।”
“मनुष्य को जन्म देते हुए ईश्वर ने उसका कार्यक्षेत्र निर्धारित कर दिया। उसने मनुष्य को इसलिए जन्म दिया है कि वह संसार में आकर कर्म करे, कायर की भाँति संसार की बाधाओं से मुख न मोड़ ले। और सुख! सुख तृप्ति का दूसरा नाम है। तृप्ति वहीं सम्भव है, जहाँ इच्छा होगी, वासना होगी।”
“सम्भवतः यद्यपि मनुष्य में गुप्त भेदों का होना उसकी दूषित प्रवृत्ति का द्योतक है, मनुष्य अपनी बातें गुप्त इसलिए रखता है कि वह भय खाता है कि कहीं समाज यदि उन बातों को जान जाए, तो उसकी समालोचना न करे, या उसको बुरा ना कहे।”
“नहीं मेरे जीवन की कोई बात गुप्त नहीं है। गुप्त वे बातें रखी जाती हैं जो अनुचित होती हैं। गुप्त रखना भय का द्योतक है, और भयभीत होना मनुष्य के अपराधी होने का द्योतक है। मैं जो करता हूँ, उसे उचित समझता हूँ इसलिए उसे कभी गुप्त नहीं रखता।”
“मनुष्य को पहले अपनी कमज़ोरियों को दूर करने का प्रयत्न करना चाहिए। आर्य श्वेतांक, दूसरों के दोषों को देखना सरल होता है, अपने दोषों को न समझना संसार की एक प्रथा हो गई है। मनुष्य वही श्रेष्ठ है, जो अपनी कमज़ोरियों को जानकर उनको दूर करने का उपाय कर सके।”
“प्रत्येक व्यक्ति अपने सिद्धान्तों को निर्धारित करता है तथा उन पर विश्वास भी करता है। प्रत्येक मनुष्य अपने को ठीक मार्ग पर समझता है और उसके मतानुसार दूसरे सिद्धान्त पर विश्वास करनेवाला व्यक्ति ग़लत मार्ग पर है।”
“हमारे प्रत्येक कार्य में अदृश्य का हाथ है। उसकी इच्छा ही सब कुछ है। और संसार में इस समय दो मत हैं। एक जीवन को हलचल-मय करता है, दूसरा जीवन को शांति का केंद्र बनाना चाहता है। दोनों ओर के तर्क यथेष्ट सुन्दर हैं, यह निर्णय करना कि कौन सत्य है, बड़ा कठिन कार्य है।”
“धर्म समाज द्वारा निर्मित है। धर्म ने नीतिशास्त्र को जन्म नहीं दिया है, वरन् इसके विपरीत नीतिशास्त्र ने धर्म को जन्म दिया है। समाज को जीवित रखने के लिए समाज द्वारा निर्धारित नियमों को ही नीतिशास्त्र कहते हैं, और इस नीतिशास्त्र का आधार तर्क है। धर्म का आधार विश्वास है और विश्वास के बन्धन से प्रत्येक मनुष्य को बाँधकर उससे अपने नियमों का पालन कराना ही समाज के लिए हितकर है। इसीलिए ऐसी भी परिस्थितियाँ आ सकती हैं, जब धर्म के विरुद्ध चलना समाज के लिए कल्याणकारक हो जाता है और धीरे-धीरे धर्म का रूप बदल जाता है।”