मुक्तिबोध की किताब ‘एक साहित्यिक की डायरी’ से उद्धरण | Quotes from ‘Ek Sahityik Ki Diary’, a book by Muktibodh
“वर्ग-विभाजित समाज में व्यक्ति का मन भी विभाजित होता है, चाहे वह इसे स्वीकार करे चाहे न करे।”
“कभी भी जिसकी व्याख्या न की गयी हो, ऐसी निराकार अमूर्त मानवता आपको सबसे प्यारी है।”
“आजकल सच्चाई का सबसे बड़ा दुश्मन असत्य नहीं, स्वयं सच्चाई ही है, क्योंकि वह ऐंठती नहीं, सज्जनता को साथ लेकर चलती है। आजकल के ज़माने में वह है आउट-ऑफ़-डेट!”
“काव्य में हमेशा अनिवार्य रूप से जीवन के मूल्य या आदर्श प्रकट नहीं होते। मात्र भाव प्रकट होते हैं।”
“वास्तविक जीवन जीते समय, सम्वेदनात्मक अनुभव करना और साथ ही ठीक उसी अनुभव के कल्पना-चित्र प्रक्षेपित करना—ये दोनों कार्य एकदम एक-साथ नहीं हो सकते।”
“एक बार अज्ञात के एक हिस्से को ज्ञात बना लेने पर पहले का ज्ञात भी कुछ नया रूप धारण करेगा। उसको यह नया रूप धारण करने दो, उसकी इस क्रिया में बाधा मत डालो।”
“सौंदर्य तब उत्पन्न होता है जब सृजनशील कल्पना के सहारे, सम्वेदित अनुभव ही का विस्तार हो जाए।”
“भाषा सामाजिक निधि है।”
“कभी-कभी ऐसा भी होता है, मन अपने को भूनकर खाता है।”
“काव्य-रचना एक परिणाम है, किसी पूर्वगत प्रदीर्घ प्रक्रिया का, जो अलग-अलग समयों में बनती गयी, और अपने तत्त्व एकत्रित करती गयी है।”
“यह सही है कि मेरी कविता ‘आधुनिकतावादी’ है, घनघोर है। लेकिन मैं आधुनिकतावादियों में भी पुराना हो रहा हूँ, और अब जल्दी ही खुर्राट हो जाऊँगा।”
“इसीलिए कहता हूँ कि हम आलोचना करते वक़्त ग़लतियों के लिए कम-से-कम पचीस-तीस प्रतिशत हाशिया छोड़ दें—अगर हम ‘हैं’ के बदले ‘हो सकता है’, ‘सम्भव है’, ‘कदाचित यह भी हो’, इस तौर से बात करें और मानवज्ञान और अपने स्वयं ज्ञान की साक्षात सीमाएँ प्रत्यक्ष ध्यान में रख उतना मार्जिन अपने को और दूसरों को प्रदान करें, तो बहुतेरे हृदय-दाह समाप्त हो जाएँ और हार्दिक तथा वैचारिक आदान-प्रदान अधिक सुगम या सरल हो! क्या मैं ग़लत कह रहा हूँ?”
मुक्तिबोध की कविता 'तुम्हारा पत्र आया'