कृष्णा सोबती के उपन्यास ‘मित्रो मरजानी’ से उद्धरण | Quotes from ‘Mitro Marjani’, a Hindi novel by Krishna Sobti
“इस देह से जितना जस-रस ले लो, वही खट्टी कमाई है।”
“चिन्ता-जंजाल किसको? मैं तो चिन्ता करनेवाली के पेट ही नहीं पड़ी।”
“ठोंक-पीट मुझे अपने सबक दोगी तो मैं भी मुँडी हिला लूँगी, जिठानी, पर जो हौंस इस तन व्यापी है…”
“चिन्ता-फिकर तेरे बैरियों को! जिस घड़नेवाले ने तुझे घड़ दुनिया का सुख लूटने को भेजा है, वही जहान का वाली तेरी फिकर भी करेगा!”
“आप ही उघाड़ोगे और आप ही कहोगे नंगे हो?”
“सच ही तो है, जो छुटके-से बच्चे को खिला-पिला पूरा जना बना दे, उस माँ की रोटी की क्या कोई कम महिमा?”
“सस्सी के पुन्नू, याद रख, खांड का बताशा और नून का डला घुलकर ही रहेगा!”
“महाराज जी, न थाली बाँटते हो… न नींद बाँटते हो, दिल के दुखड़े ही बाँट लो।”
“जिन्द-जान का यह कैसा व्यापार? अपने लड़के बीज डालें तो पुण्य, दूजे डालें तो कुकर्म!”
“नद-नदिया-सी खुली-डुली बहू आज अँधेरी कोठरी-सी गुमसुम क्यों?”
“खुशियाँ कहीं उगती-बिकती होंगी! अरी, ये तो मनुक्ख के मन में उपजती हैं।”
“ऐसे ही मर्द-जने की हुक्मबन्द लौंडी हूँ न! मिलाने को तो रातों मुझसे नज़र न मिलाए, मैं उसके तहबन्द के पल्लू खींचती रहूँ।”
“काहे का डर? जिस बड़े दरबारवाले का दरबार लगा होगा, वह इन्साफी क्या मर्द-जना न होगा? तुम्हारी देवरानी को भी हाँक पड़ गई तो जग-जहान का अलबेला गुमानी एक नज़र तो मित्रो पर भी डाल लेगा!”
“बस-बस, जिठानी सुहागवन्ती! अपने भय-भूत, डर-धमकावे अपने ही पास रहने दो! वह जन्म-मरण का हिसाबी सयाना पादशाह तुम्हारा ही सगा-सम्बन्धी नहीं, मित्रो का भी कुछ लगता है।”
“यह घर-गृहस्थी तो मोह-माया की फुलवाड़ी! एक बार खिली नहीं कि मनुक्ख नाशुक्रा बेर-बेर हाथ पसारे दाते से कुछ-न-कुछ माँगता ही जाता है।”
“आयी बसन्त और पाला उड़न्त!”
“अपने कबूतर-से दिल को किस कैद में रखोगी बीबो, यह तो नित नया चुग्गा माँगेगा!”
कृष्णा सोबती के उपन्यास 'ज़िन्दगीनामा' से उद्धरण