मुर्दहिया
“हम अंजुरी मुँह से लगाए झुके रहते, और वे बहुत ऊपर से चबूतरे पर खड़े-खड़े पानी गिराते। वे पानी बहुत कम पिलाते थे किंतु सिर पर गिराते ज़्यादा थे जिससे हम बुरी तरह भीग जाते थे। पानी पीना वास्तव में एक विकट समस्या थी।”
“हमारे घर में सोने के लिए जाड़े के दिनों में घर की फ़र्श पर धान का पोरा अर्थात् पुआल बिछाया जाता था। उस पर कोई रेवा या गुदड़ी बिछाकर हम धोती ओढ़कर सो जाते। इसके बाद मेरे पिता जी पुनः ढेर सारा पुआल हम लोगों के ऊपर फैला देते। वे दिन आज भी याद आते हैं तो मुझे लगता है कि मुर्दों-सा लेटे हुए हमारे नीचे पुआल, ऊपर भी पुआल और बीच में कफ़न ओढ़े हम सो नहीं बल्कि रात-भर अपनी-अपनी चिताओं के जलने का इंतज़ार कर रहे हों।”
“हरिजन जाति सहै दुख भारी हो।
हरिजन जाति सहै दुख भारी॥
जेकर खेतवा दिन भर जोत ली,
ऊहै देला गारी हो, दुख भारी॥
हरिजन जाति सहै, दुख भारी॥”
“हमारा परिवार संयुक्त स्वरूप से बृहत् होने के साथ-साथ वास्तव में एक अजायबघर ही था, जिसमें भूत-प्रेत, देवी-देवता, सम्पन्नता-विपन्नता, शकुन-अपशकुन, मान-अपमान, न्याय-अन्याय, सत्य-असत्य, ईर्ष्या-द्वेष, सुख-दुख आदि-आदि सब कुछ था किंतु शिक्षा कभी नहीं थी।”
“जब मुझे मालूम हुआ कि दुनिया में दुःख है, दुःख का कारण है और उसका निवारण भी, तो ऐसा लगा कि इस सत्य को ढूँढने से पहले तथागत गौतम बुद्ध कभी न कभी मेरी मुर्दहिया से अवश्य गुज़रे होंगे।”
“बासू पांडे के इस छलिया कपट से आघातित होकर जेदी चाचा प्रतिरोधस्वरूप नए क़िस्म का सत्याग्रह करने लगे। वे सब काम-धाम बंद कर दाढ़ी-मूँछ बढ़ाना शुरू कर दिए तथा निचंड़ धूप में चारपाई डालकर एक चादर ओढ़कर दिन-भर सोते रहते थे। पूछने पर कहते थे कि जब तक बामन न्याय नहीं करते, मैं दाढ़ी-मूँछ बढ़ाता रहूँगा तथा धूप में ही सोऊँगा। वे इस मामले में निहायत ज़िद्दी थे। पंचायत आदि द्वारा किसी अन्य समझौते को वे मानने से साफ़ इंकार कर दिए थे।”
“सूरज डूबते ही झींगुर तथा रेउवां की निरन्तर जारी रहने वाली चिंचियाती धुनों में हज़ारों मेंढकों की तरतराहट मिलकर किसी को सोने नहीं देती थी। वहीं गोबड़ौरों का समूह मैले के ढेर को गोलाकार ग्लोब का रूप देकर ऐसे ठेलते नज़र आने लगे थे कि मानो दुःखों से भरी इस धरती को लुढ़काकर वे किसी अन्य ग्रह पर ले जा रहे हों।”
“जिस समय कोई चमार पुरुष मरे हुए जानवर का चमड़ा निकालना शुरू करता, अचानक सैंकड़ों की संख्या में गिद्ध मंडराने लगते तथा दर्ज़नों कुत्ते आकर भौंकने लगते थे। कुछ सियार भी चक्कर मारते, किन्तु कुत्तों और महिलाओं की उपस्थिति को देखते हुए वे पास नहीं आ पाते। मरे पशु के माँस के बंदरबाँट में महिलाओं के साथ कुत्तों की उग्र होड़ मच जाती थी।”
“मुर्दहिया पर मुर्दा माँस खाने के बाद सैंकड़ों गिद्ध उस पशु कंकाल से थोड़ी दूर हटकर अपनी टेढ़ी घेंटी लिये घंटों तक मौनव्रती के रूप में किसी तपस्वी की तरह बैठे रहते थे। घंटों तक शांत बैठे ये गिद्ध ऐसा लगता था कि मानो वे मुर्दहिया के भूतों को शोकांजलि देने के लिए विपस्सना कर रहे हों।”
“चेचक का प्रकोप हटते ही मेरी पूरी देह पर गहरे-गहरे दाग़ पड़ गए। विशेष रूप से मेरा चेहरा इन दाग़ों का भंडारण क्षेत्र बन गया। गाँव में लोहार अनाज से मिट्टी या कंकड़ निकालने के लिए लोहे की पतली चद्दर काटकर उसे बड़ी चलनी का रूप देते थे और उसकी पेंदी में सैंकड़ों छेद कर देते थे, जिसे ‘आखा’ कहते थे। आखा की पेंदी का बाहरी हिस्सा छेनी के छेद से खुरदरा हो जाता था। मेरा चेहरा इसी आखा के बाहरी हिस्से जैसा हो गया था।”
“मेरे जैसे तमाम दलित छात्र वही महुवे का ‘लाटा’ तथा ‘चोटे में सने सूखे सत्तू’ की गठरी लिए चल पड़े। हैडमास्टर साहब के आदेश से हम लाईन बनाकर सैनिकों की तरह परेड करते हुए सात मील का रास्ता तय करके इम्तिहान स्थल पर पहुँचे थे। हमारा यह अभियान माओत्से तुंग के उस ऐतिहासिक ‘लॉन्ग मार्च’ से कम नहीं था, क्योंकि उसमें तो वही ‘लाटा सत्तू’ वाले ही लोग शामिल थे।”
“सप्ताह के हर दिन के नाम वाली औरतें, जैसे— सोमरिया, मंगरी, बुधिया, बेफइया, सुखिया, सनीचरी तथा अतवरिया, ये सभी हमारी बस्ती में रहती थीं।”
“एक हिन्दू अंधविश्वास के अनुसार किसी गाँव में दक्षिण दिशा से ही कोई आपदा, बीमारी या महामारी आती है, इसलिए हमेशा गाँवों के दक्षिण में दलितों को बसाया जाता था। अतः मेरे जैसे सभी लोग हमारे गाँव में इन्हीं महामारियों-आपदाओं का प्रथम शिकार होने के लिए ही दक्षिण की दलित बस्ती में पैदा हुए थे।”
“धान की अच्छी फ़सलों के बाद चैत-वैथाख के दिनों में जौ, गेहूँ, चना, मटर आदि फ़सलों की कटाई से दलितों के बीच काफ़ी ख़ुशहाली छा गई थी, इसका कारण था कुछ महीनों के लिए उचित भोजन व्यवस्था, इस संदर्भ में हमारे पूरे क्षेत्र में दूर-दूर तक ब्राह्मण तथा क्षत्रिय ज़मींदारों के बीच चमारों को लेकर एक काव्यात्मक मुहावरा प्रचलित था : ‘भादों भैंसा चइत चमार-इनसे कबहूं लगै न पार’, इस निरादरपूर्ण अमानवीय अभिव्यक्ति में चमारों की पेट भरकर खाने की खिल्ली उड़ायी गई थी। उपरोक्त उक्ति से यह भी प्रकट होता है कि भारत का सवर्ण समुदाय चमारों को भूखे पेट देखना ही ज़्यादा पसंद करता है।”
“दीवार पर गेरू तथा हल्दी से जो पेंटिंग की जाती थी, उसे कोहबर कहा जाता था। ऐसी कलाकृतियों में केले का पेड़, हाथी, घोड़े, औरत, धनुष-बाण आदि शामिल होते थे। इन कलाकृतियों को ‘कोहबर लिखना’ कहा जाता था। चिट्ठी की तरह कोहबर लिखने के लिए भी गाँव वाले मेरी ही तलाश में रहते थे। अतः मैं जब तक गाँव में रहा, शादी किसी के घर हो, कोहवर मैं ही लिखता रहा। एक विशेष बात यह थी कि इन कोहबर कलाकृतियों का प्रचलन सवर्ण जातियों में नहीं था। इन परम्पराओं से ज़ाहिर होता है कि सदियों से चला आ रहा दलितों का यह बहिष्कृत समुदाय एक अलौकिक कला एवं संगीत का न सिर्फ़ संरक्षक रहा, बल्कि उसका वाहक भी है। अशिक्षा के कारण लिपि का ज्ञान न होने के कारण दलित लोग सम्भवतः भारत के पहले व्यक्ति थे जिन्होंने अभिव्यक्ति के लिए कोहबर पेंटिंग का सहारा लिया था।”
मणिकर्णिका
“बनारस में यह विचित्र स्थिति थी कि मकान तो किराए पर मिलता था, किन्तु जातिवाद मुफ़्त में।”
“ईश्वर हमेशा डरपोक दरवाज़े से ही मस्तिष्क में घुसता है। व्यावहारिक रूप से ईश्वर मानव को सिर्फ़ डरपोक बनाता है।”
“जब कोई उच्च जाति का व्यक्ति दलितों पर किए जाने वाले अत्याचार पर लिखता या बोलता है, तो वह समाज सुधारक कहलाता है, किन्तु जब वही बात कोई दलित लिखता या बोलता है, तो उसे जातिवादी मान लिया जाता है।”
“यह एक पुरानी रणनीति रही है कि किसी दलित को कुचलना हो, तो उसके समक्ष दूसरे दलित को खड़ा कर दिया जाए।”
“मेरे जिस मस्तिष्क में ईश्वर का प्रवेश हमेशा के लिए वर्जित हो गया था, उसमें वह बेरोकटोक प्रवेश कर जाती थी।”
“मोह में तो जानवर भी एकाधिकारवादी बन जाता है, फिर मानव का क्या कहना?”