महादेवी वर्मा के रेखाचित्र ‘ठकुरी बाबा’ से उद्धरण | Mahadevi Verma Quotes from ‘Thakuri Baba’ in Hindi
“मेरे संकल्प के विरुद्ध बोलना उसे और अधिक दृढ़ कर देना है।”
“प्रतिवाद के उपरांत तो मत-परिवर्तन सहज है, पर मौन में इसकी कोई संभावना शेष नहीं रहती।”
“जीवन के सम्बन्ध में निरंतर जिज्ञासा मेरे स्वभाव का अंग बन गई है।”
“पैताने की ओर यत्न से रखी हुई काठ और निवाड़ से बनी खटपटी कह रही थी कि जूते के अछूतेपन और खड़ाऊँ की ग्रामीणता के बीच से मध्यमार्ग निकालने के लिए ही स्वामी ने उसे स्वीकार किया है।”
“कोई भी कला सांसारिक और विशेषतः व्यावसायिक बुद्धि को पनपने ही नहीं दे सकती और बिना इस बुद्धि के मनुष्य अपने आपको हानि पहुँचा सकता है, दूसरों को नहीं।”
“पति ने उनका इहलोक बिगाड़ दिया है, पर अब उसके अतिरिक्त किसी और की कामना करके वे परलोक नहीं बिगाड़ना चाहतीं।”
“कचहरी में गवाही की पुकार के समान नामों की पुकार होती थी। कवियों में कोई मुस्कराता, कोई लजाता, कोई आत्म-विश्वास से छाती फुलाता हुआ आगे आता। कोई पंचम, कोई षड्ज, कोई गान्धार और कोई सब स्वरों के अभाव में एक सानुनासिकता के साथ कलाबाजियो में काव्य को उलझा-उलझाकर श्रोताओं के सामने उपस्थित करता और ‘वाह-वाह’ के लिए सब ओर गर्दन घुमाता।
उनके इतने करतब पर भी दर्शक चमत्कृत होना नहीं जानते थे। कही से आवाज आती – कण्ठ अच्छा नहीं है। कोई बोल उठता – भाव भी बताते जाइए। किसी ओर से सुनाई पड़ता – बैठ जाइए। कोई धृष्ट श्रोता कवि से किसी उच्छृश्रृंखल शृंगारमयी रचना को सुनाने की फरमाइश करके महिलाओं की पलकों का झुकना देखता।
कवि भी हार न मानने की शपथ लेकर बैठते हैं। ‘वह नहीं सुनना चाहते तो इसे सुनिए, यह मेरी नवीनतम कृति है, ध्यान से सुनिए’ आदि-आदि कहकर वे पंडों की तरह पीछे पड़ जाते हैं। दोनों ओर से कोई भी न अपनी हार स्वीकार करने को प्रस्तुत होता है और न दूसरे को हराने का निश्चय बदलना चाहता है।”
“कवि कहेगा ही क्या, यदि उसकी इकाई बनकर अनेकता नहीं पा सकी और श्रोता सुनेंगे ही क्या, यदि उन सबकी विभिन्नताएँ कवि में एक नहीं हो सकीं।”
“अर्थ ही इस युग का देवता है।”
“कवि अपनी श्रोता-मंडली में किन गुणों को अनिवार्य समझता है यह प्रश्न आज नहीं उठता, पर अर्थ की किस सीमा पर वह अपने सिद्धांतों का बीज फेंककर नाच उठेगा, इसका उत्तर सब जानते हैं।”
“व्यक्ति समय के सामने कितना विवश है। समय को स्वीकृति देने के लिए भी शरीर को कितना मूल्य देना पड़ता है।”
“मैंने हँसी में कहा – ‘तुम स्वर्ग में कैसे रह सकोगे बाबा! वहाँ तो न कोई तुम्हारे कूट पद और उलटवासियाँ समझेगा और न आल्हा-ऊदल की कथा सुनेगा। स्वर्ग के गन्धर्व और अप्सराओं में तुम कुछ न जँचोगे।’
ठकुरी बाबा का मन प्रसन्न हो गया। कहने लगे – ‘सो तो हम जानित है बिटिया! हम उहां अस सोर मचाउब कि भगवानजी पुन धरती पै ढनकाय देहैं। हम फिर धान रोपब, कियारी बनाउब, चिकारा बजाउब और तुम पचै का आल्हा-ऊदल की कथा सुनाउब। सरग हमका ना चही, मुदा हम दूसर नवा सरीर मांगै बरे जाब जरूर। ई ससुर तौ बनाय कै जरजर हुइग’ – और वे गा उठे :
चलत प्रान काया काहे रोई राम।”
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