मैं खुद को ही मंजिल मानकर चलता रहा अनजानी राहों पर, कुछ देर चलने के बाद मैं पीछे मुड़कर देखता हूँ तो गहरा शून्य पसरा है उन रास्तों पर जहाँ मैं खुद से ही बदमाशियाँ कर रहा था ।

क्या मेरा खुद को मंजिल मान लेना गलत था?

क्या मुझे रास्तों में मिले अजनबी लोगों से वास्ता रखना चाहिए था?

क्या मैंनें स्वयं को राह व मंजिल मान लिया तो लोग मुझसे दूर हो जायेंगे फिर वो उन राहों पर नही चलेंगे जहाँ से मैं चलकर आया हूँ…

शायद तभी उन पथों पर कोई नहीं आया होगा और गहरा शून्य पसरा है।

मैं फिर से चल पड़ा इन बातों को दरकिनार करके, मैं मंजिल था तो सफर भी बहुत लम्बा था, रास्ता मैं ही और मंजिल भी मैं ही।

बहुत दूर तक चलने के बाद रास्ते ने मंजिल से कहा – कहाँ तक चलेगा, मैं थक गया हूँ चलते चलते।

रास्ते की बात सुनकर मंजिल को हँसी आ गई और दोनों ने समझौता कर लिया ।

अब मैं मंजिल की तलाश में ज़्यादा दूर नहीं जाता, खुद का रास्तों का नाम रख लेता हूँ।

मंजिल मिल जाती है और रास्ते ठहर जाते हैं।