सर्द है ग़मगीन है यह रात की चादर
ढूंढता है इक मुसाफ़िर एक हंसी मंज़र
क्या मुक्कमल है कि मिल जाये कोई ऐसा शहर
हो जहाँ हर राह नूरी, खुशदिल हो हर सफ़ऱ
सर्द है ग़मगीन है ये रात की चादर
कैद हर ज़ज़्बात दिल में
ग़ुमराह हर डगर
हर ज़र्रा है सूना, नाराज़ हर नज़र
हाँ मुक्कमल है कि ज़िन्दगी की हो जाये अब सहर
पर मुसाफ़िर ढूंढता है इक हँसी मंज़र
पाँव गुमहारी के आलम में ठिठकते हैं मगर
चलना ही ईमान है कैसी भी हो रहगुज़र।

अनुपमा मिश्रा
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