‘Rangpath Se Pare Rang’, a poem by Dharmpal Mahendra Jain

बंद आँखों के भीतर
घने अंधेरे में
जब तुम आती हो
बहुत सारे रंग आते हैं तुम्हारे साथ
ख़ुशमिज़ाज
इंद्रधनुष को तुममें बदलते हुए।

सुनहरी किरणें दस्तक देती हैं
कपास का श्वेत फूल प्रस्फुटित होता है
वह जो नीला वलय बन रहा था तुम्हारे हाथों से
तुम्हारे जामुनी होंठों में बदल जाता है
मैं तुम्हें ढूँढने लगता हूँ
वहाँ तो चमकती हँसी होती है।

आहिस्ता-आहिस्ता
आसमानी रंग चमकदार होने लगता है
ऐसा कि सैकड़ों सूरज
एक साथ जगमगाये हों
भूरी पलकों के भीतर मुस्कुराती हैं तुम्हारी आँखें
विचार की तरह आती हो तुम सहज
और व्याकरण बनने लगती हो धीरे-धीरे।

कितने सारे रंग हैं तुम्हारे!
मैं एक रंग समझने की कोशिश करता हूँ
और नये रंग भर आते हैं
रंगपथ से परे रंग
जो पहले देखे नहीं मैंने कभी।

बंद आँखों से तारों में खोजता हूँ तुम्हें
नारंगी धरती को ढाँप लेता है कोई कत्थई ग्रह
चाँदनी के साये में तुम उतरती हो तो
साँस लौटती है वापस
तुम पर सब रंग फ़बते हैं।

घने काले बादल घिर आते हैं
बिजली-सी कौंधती हो तुम
और खो जाती हो
कहाँ से आती हो तुम आँखों के भीतर और
सुलाकर भाग जाती हो।

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धर्मपाल महेंद्र जैन
टोरंटो (कनाडा) जन्म : 1952, रानापुर, जिला – झाबुआ, म. प्र. शिक्षा : भौतिकी; हिन्दी एवं अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर प्रकाशन : छः सौ से अधिक कविताएँ व हास्य-व्यंग्य प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित, आकाशवाणी से प्रसारित। 'कुछ सम कुछ विषम', और ‘इस समय तक’ कविता संकलन व 'इमोजी की मौज में', "दिमाग़ वालो सावधान" और “सर क्यों दाँत फाड़ रहा है?” व्यंग्य संकलन प्रकाशित। संपादन : स्वदेश दैनिक (इन्दौर) में 1972 में संपादन मंडल में, 1976-1979 में शाश्वत धर्म मासिक में प्रबंध संपादक। संप्रति : सेवानिवृत्त, स्वतंत्र लेखन। दीपट्रांस में कार्यपालक। पूर्व में बैंक ऑफ इंडिया, न्यू यॉर्क में सहायक उपाध्यक्ष एवं उनकी कईं भारतीय शाखाओं में प्रबंधक। स्वयंसेवा : जैना, जैन सोसायटी ऑफ टोरंटो व कैनेडा की मिनिस्ट्री ऑफ करेक्शंस के तहत आय एफ सी में पूर्व निदेशक। न्यू यॉर्क में सेवाकाल के दौरान भारतीय कौंसलावास की राजभाषा समिति और परमानेंट मिशन ऑफ इंडिया की सांस्कृतिक समिति में सदस्य। तत्कालीन इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ बैंकर्स में परीक्षक।