रंज की जब गुफ़्तुगू होने लगी
आप से तुम, तुम से तू होने लगी
चाहिए पैग़ाम-बर दोनों तरफ़
लुत्फ़ क्या जब दू-ब-दू होने लगी
मेरी रुस्वाई की नौबत आ गई
उन की शोहरत कू-ब-कू होने लगी
है तिरी तस्वीर कितनी बे-हिजाब
हर किसी के रू-ब-रू होने लगी
ग़ैर के होते भला ऐ शाम-ए-वस्ल
क्यूँ हमारे रू-ब-रू होने लगी
ना-उम्मीदी बढ़ गई है इस क़दर
आरज़ू की आरज़ू होने लगी
अब के मिलकर देखिए क्या रंग हो
फिर हमारी जुस्तुजू होने लगी
‘दाग़’ इतराए हुए फिरते हैं आज
शायद उन की आबरू होने लगी!
दाग़ देहलवी की ग़ज़ल 'ये बात-बात में क्या नाज़ुकी निकलती है'