रंज की जब गुफ़्तुगू होने लगी
आप से तुम, तुम से तू होने लगी

चाहिए पैग़ाम-बर दोनों तरफ़
लुत्फ़ क्या जब दू-ब-दू होने लगी

मेरी रुस्वाई की नौबत आ गई
उन की शोहरत कू-ब-कू होने लगी

है तिरी तस्वीर कितनी बे-हिजाब
हर किसी के रू-ब-रू होने लगी

ग़ैर के होते भला ऐ शाम-ए-वस्ल
क्यूँ हमारे रू-ब-रू होने लगी

ना-उम्मीदी बढ़ गई है इस क़दर
आरज़ू की आरज़ू होने लगी

अब के मिलकर देखिए क्या रंग हो
फिर हमारी जुस्तुजू होने लगी

‘दाग़’ इतराए हुए फिरते हैं आज
शायद उन की आबरू होने लगी!

दाग़ देहलवी की ग़ज़ल 'ये बात-बात में क्या नाज़ुकी निकलती है'

Book by Dagh Dehalvi:

दाग़ देहलवी
नवाब मिर्जा खाँ 'दाग़', उर्दू के प्रसिद्ध कवि थे। इनका जन्म सन् 1831 में दिल्ली में हुआ। गुलजारे-दाग़, आफ्ताबे-दाग़, माहताबे-दाग़ तथा यादगारे-दाग़ इनके चार दीवान हैं, जो सभी प्रकाशित हो चुके हैं। 'फरियादे-दाग़', इनकी एक मसनवी (खंडकाव्य) है। इनकी शैली सरलता और सुगमता के कारण विशेष लोकप्रिय हुई। भाषा की स्वच्छता तथा प्रसाद गुण होने से इनकी कविता अधिक प्रचलित हुई पर इसका एक कारण यह भी है कि इनकी कविता कुछ सुरुचिपूर्ण भी है।