जिस्मों के उतार-चढ़ाव
का सफ़र आसमान पर
चाँद के साथ
जवाँ होता रहा,
वो मुकरती रही
माथे पर अधरों के
शीतल अंगारे, गालों पर
सरकने से बेख़बर
नयनों में चमकते रहे,
होंठो पर उतरते ओष्ठ
हरारत की ज़द में रहे,
वो मचलती रही
रक्त देह से परे
ज़हन के ज़ब्त में
बेक़रार होता रहा,
मादक छुवन गले से उतर
उभरती वादियों में
फिसलती रही,
वो पिघलती रही
रम्य वक्षांचल के
शैल-ओ-शिखर
अनल अधरों पर
चढ़ते उतरते रहे,
रसज्ञा नाभिकायन में
नत अनुरक्त हुई,
किंकिणी पर कंदर्प के
कुसुमासव कमनीय होते रहे,
वो दहकने लगी
यामिनी यौवना हो चली
रमणी मृदु पद्म में उष्म
रतिरागिनी झरने लगी,
प्रणय-सोम उत्कर्ष को
उच्छृंखलित है,
आहों सीत्कारों का सावन है!
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© मनोज मीक