किताब: ‘अन्दाज़-ए-बयाँ उर्फ़ रवि कथा
लेखिका: ममता कालिया
टिप्पणी: देवेश पथ सारिया

‘अन्दाज़-ए-बयाँ उर्फ़ रवि कथा’ वरिष्ठ लेखिका ममता कालिया की सद्यःप्रकाशित किताब है, जिसमें उन्होंने अपने हमसफ़र, महत्त्वपूर्ण कहानीकार एवं कई उल्लेखनीय पत्रिकाओं के सम्पादक रवींद्र कालिया को याद किया है।

रवींद्र कालिया के व्यक्तित्व के सभी नैसर्गिक रंग इस किताब में मिलते हैं। जिन पाठकों ने कालिया जी की किताब ‘ग़ालिब छुटी शराब’ पढ़ी है, उन्हें इस किताब को भी पढ़ना चाहिए। इससे न केवल कई सिरे जुड़ेंगे बल्कि एक सहयात्री का नज़रिया भी जानने को मिलेगा।

यह न सिर्फ़ एक पत्नी द्वारा लिखित अपने पति की स्मृतियों का कोलाज है, बल्कि एक प्रेमिका की नाज़ुक भावना भी यहाँ देखने को मिलती है, जो बात-बात में अपने रवि की मासूमियत को याद करती है। याद ममता जी अपने पति के स्वभाव के अन्य पहलुओं को भी करती हैं जैसे उनके नखरे, शरारतें, उदारता, मातृभक्ति आदि।

“उसका जीने का अन्दाज़ बेढब था, बेतरतीब। जो झटके उसने खाये, उसके धचके हमें भी लगे। औरों की मुश्किलों को लेकर तीन-चौथाई वक़्त परेशाँ रहना। परेशाँ है तो पीना, पशेमाँ हैं तो पीना। ख़ुश हैं तब तो ज़रूर पीना। मायूस है तो मायूसी के नाम पीना।”

कालिया दम्पति का जीवन एक मध्यमवर्गीय दम्पति की कथा है। संघर्ष करते हुए इस जोड़े की जीवन यात्रा कालिया दम्पति को पंजाब से मुम्बई, मुम्बई से इलाहाबाद, इलाहाबाद से कोलकाता और वहाँ से दिल्ली ले गई। साहित्यिक सफ़र भी इस दौरान चलता रहा। इलाहाबाद में कालिया जी के प्रिंटिंग प्रेस चलाने के अनुभव बड़े कठिन और हिला देने वाले हैं।

इस कथा के दोनों घटक अलग-अलग संस्कृति से आए, जो इतनी विपरीत थीं कि एक को अरहर की दाल जानवरों का खाना लगती थी और दूसरी को घी से भरपूर पंजाबी खाना नहीं रुचता था। दोनों कहानीकार, दोनों के लिखने की गति अलग, प्रिय रचनाकार अलग, लिखे हुए को सम्भालकर रखने का तरीक़ा भी अलग, और आपस में कोई स्पर्धा नहीं।

अनुभव बिना संघर्ष के कहाँ आता है जो कालिया जी की ज़िन्दगी में आता? संघर्षों से उनके भीतर का मनुष्य एवं लेखक घिस-घिसकर चमकदार होता रहा।

पंजाबियत, भोजन रुचि, शराबनोशी, स्पष्टवादिता इत्यादि तत्वों से एक मनुष्य का निर्माण हुआ जो कुछ परम्पराओं को मानने से इंकार करता रहा, जीवन पश्चात अंतिम क्रिया के लिए भी जिसने विद्युत शवदाह-गृह चुना।

किताब पढ़ते हुए रह-रहकर यह ख़्याल आता रहा कि लेखन की दुनिया में बहुत ऊँचे पायदान पर होकर भी संघर्ष बना रहता है। संघर्ष जायज़ है पर संघर्ष में आर्थिक मुद्दों का भी शामिल होना? क्यों यह हिन्दी लेखक की नियति है?

किताब में कालिया जी की बीमारी एवं आख़िरी दिनों का वर्णन भी है जिसे पढ़कर मन बैठ जाता है। पर फिर लेखिका ख़ुद को सम्भालते हुए सुखद और कठिन दिनों की यादें साझा करने लगती हैं। लेखिका ने किताब का अंत उस क़िस्से का वर्णन कर किया जिसने कालिया जी को बीमारी से भी ज़्यादा दुख दिया। एक पाठक के तौर पर अंतिम लिखित पृष्ठ पर (क्योंकि सबसे अंत में फ़ोटो एल्बम है) कालिया जी की मृत्यु का उल्लेख मुझे दुखी कर देता। वैसे भी यह दुख तो कालिया जी के चाहने वालों को रहेगा ही। पर जैसा इस किताब में लिखा है, कालिया जी अब अपने लिखे में जीवित हैं।

रवींद्र कालिया भी यही चाहते थे कि वे अपना नाम बर्तनों पर नहीं, किताबों में छोड़ जाएँ।

यह पुस्तक अनेक महत्त्वपूर्ण साहित्यकारों के बारे में संस्मरण प्रस्तुत करती है। कालिया जी सहित अन्य लेखकों के पत्र भी यहाँ हैं। हालाँकि कालिया जी को पत्र लिखने से अधिक पत्र प्राप्त करना सुखद लगता था। उपेंद्रनाथ अश्क, निर्मल वर्मा, ज्ञानरंजन जैसे वरिष्ठ लेखकों का ज़िक्र किताब में मिलता है। मोहन राकेश और नामवर सिंह को कालिया बहुत मान देते थे। सम्पादक होने के नाते और आत्मीयता के चलते उनका सम्बन्ध हर पीढ़ी के लेखकों से बना रहा। तभी जितेंद्र श्रीवास्तव, कुमार अनुपम, प्रांजल धर आदि कालिया जी को देखने रात में भी अस्पताल पहुँच जाते हैं। साहित्यिक मित्रता, हँसी-मज़ाक़ और युवा लेखकों का सम्पादक के साथ रिश्ता एवं लेखकों की अपने अग्रज की फ़िक्र, यहाँ साहित्यिक रिश्तों के सभी स्वरूप मौजूद हैं।

कालिया जी ने धर्मयुग, वर्तमान साहित्य, वागर्थ एवं नया ज्ञानोदय आदि पत्रिकाओं में काम किया। उनकी सम्पादकीय सक्रियता एवं क्रियाविधि पर भी किताब प्रकाश डालती है। यह समझने में मदद मिलती है कि क्यों कालिया जी को ऐसा सम्पादक कहा जाता था जो संघर्ष कर रही पत्रिकाओं में भी एक नयी जान फूँक देता था। लेखक की नब्ज़ पकड़कर लेखक से उसका सर्वश्रेष्ठ प्रयास करवाना कालिया जी को सफल सम्पादक बनाता है।

ममता जी का मानना है कि ‘ग़ालिब छुटी शराब’ को मिली शानदार प्रसिद्धि की वजह से कालिया जी द्वारा लिखित अन्य महत्त्वपूर्ण पुस्तकों पर उतना ध्यान नहीं दिया गया, जितने की वे हक़दार थीं। ऐसी उम्मीद की जानी चाहिए कि हिन्दी साहित्य के अध्येता अब इस दिशा में काम करेंगे।

यह किताब इसलिए भी पढ़ी जानी चाहिए क्योंकि एक प्रकार से यह ममता जी की आत्मकथा भी है—कविता से कहानी की तरफ़ आ जाने वाली ममता जी, परिवार की आर्थिक सुरक्षा के लिए नौकरी करती रहने वाली ममता जी, लेखन में गतिमान रहने वाली ममता जी, शराब का रुख़ न करने वाली ममता जी, रवि जी की स्मृति में विकल होती ममता जी।

यदि ममता कालिया और विस्तार से अपने जीवन के बारे में भी लिखना चाहें, तो हिन्दी का पाठक वर्ग प्रतीक्षारत है।

पालतू बोहेमियन: कथेतर गद्य की रोचक पुस्तक

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देवेश पथ सारिया
हिन्दी कवि-लेखक एवं अनुवादक। पुरस्कार : भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार (2023) प्रकाशित पुस्तकें— कविता संग्रह : नूह की नाव । कथेतर गद्य : छोटी आँखों की पुतलियों में (ताइवान डायरी)। अनुवाद : हक़ीक़त के बीच दरार; यातना शिविर में साथिनें।