गीतांजलि श्री का उपन्यास ‘रेत समाधि’ हाल ही में इस साल के लिए दिए जाने वाले बुकर प्राइज़ के लिए चयनित अन्तिम छः किताबों में शॉर्टलिस्ट किया गया है। किताब राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित है। प्रस्तुत हैं इसी किताब से कुछ उद्धरण—

चयन: पुनीत कुसुम


“जो करो वही सीमापार, तो कुछ करें ही नहीं?”


“शब्द होते क्या हैं जी? ध्वनि जिसमें वे अपने मतलब झुला देते हैं।”


“प्राइवेसी यहाँ शब्दकोष नहीं जानता और ऐसे अधिकार का कोई दावा करे तो निगाहें शक्की उस पर पड़ेंगी कि आख़िर क्या छिपाने की मंशा है, कुछ काला दिख रहा है दाल में।”


“‘इस देखते रहो परखते रहो’ का बहनों-बेटियों से जन्म-जन्मान्तर का रिश्ता है। तभी वे परिवारों से भागना चाहती हैं और दरवाज़े पर एक पैर उठाये सोच में पड़ जाती हैं कि उन्हें भीतर जाना है या बाहर?”


“गाथा की कोई मुख्यधारा ज़रूरी नहीं। उसे छूट है कि भागे, बहे, नदी, झील, नये-नये सोते में।”


“‘नहीं’ से राह खुलती है। ‘नहीं’ से आज़ादी बनती है। ‘नहीं’ से मज़ा आता है। ‘नहीं’ अहमक़ाना है। अहमक़ाना सूफ़ियाना है।”


“बताओ कि किरदार वही क्यों जो है? ग़रीब के घर में धन किरदार, बदसूरत के जीवन में सुन्दरता, भारत में पाक और अमरीका खलनायक और नायक, अंधे का मुख्य किरदार आँख और लंगड़े का टाँग, निघरी के जीवन में घर किरदार, बेरोज़गार के जीवन में नौकरी, उड़ी नींद के जीवन में सोती और बस करना चाहे हो तो बस देख लो कि हर किसी के जीवन में जो नहीं है वो ही असल किरदार।”


“आकस्मिक घटनाओं की जीवन में अहम भूमिका है, चाहे वो दुर्घटना हो या सुघटना। ऐसे ही इश्क़ होते हैं, मौत होती है, हँसी आती है, हँसी जाती है।”


“पन्ना मंच है—द पेज इज़ अ स्टेज।”


“तो आपके यहाँ कौन निवासी है?

प्रकृति।

और आप?

हम तो उसके बीच उग आयी बेकार घास, वीड, हैं। नागरिक वो हैं। पानी, ज्वालामुखी, पत्थर। समझे न? पत्थर। वो हैं हमारे यहाँ।”


“भीतर जो है वो ही घर को महल बनाता है या दड़बा, बाहर के नाप की इसमें कोई दरकार नहीं।”


“राहें उलझती हैं तभी नये क्षितिज खुलते हैं।”


“दुनिया सोती है तो कायनात आने वाले वक़्त को कुम्हार की तरह गढ़ती है।”


“चुप के मायने बेस्वर होना नहीं है। उसके मायने स्वर के घेरे में चुप का बसेरा है। उसी का बयार बन के बहना।”


“शान्त का शोर से कब वास्ता? शोर का शान्त से क्या? जब चुप होता है तो चुपचाप रहता है। उसके घेरे में शान्त है तो आप चुप में हैं, चाहे बाहर दुनिया धूमधड़ाका मचाए। उसके घेरे में शोर है तो सन्नाटे में भी आप शोर में हुए।”


“किसी को जहाँ देखते हैं वहाँ से अलग कहीं देखें तो शायद उसे न पहचानना ताज्जुब नहीं।”


“कम बड़े बेटे हैं जिन्हें घरवालों से बात करनी आती है। अगर हाल-चाल लेना, दिल की कहना, अन्तरंग बातों पे ख़ुस-फुस करने को बात करना कहा जाए। आदेश देना, तरीक़े सुझाना और ये नहीं तो छेड़छाड़ करना, इस तरह बड़े बेटे बतियाते हैं। बाप की सख़्त शख़्सियत पहने हुए, चाहे दिल अपना हो और नर्म। बड़े की आवाज़ बदतमीज़ अकड़ू व्यंगाती चिन्ताती इधर-उधर की करती। क्योंकि बड़े बेटों को आता कहाँ है सीधे-सादे प्रेम के दो लफ़्ज़ बोलना।”


“तुम्हारे चारों ओर जो भाषा बजती है वो तुम्हारे अनजाने तुम्हारे मन में भरती है और तुम हैरान होते हो कि ये सब मैंने कब सीख लिया। इसीलिए, अच्छी बोली के बीच विचरो।”


“ये कौन-सा बदन फ़ितूर है जो सिर्फ़ नये यौवन का हक़ और मद है? जैसे उसके बाद का जीवन दिन-प्रतिदिन और तिल-प्रति-तिल केंचुली उतारने फेंकने का है, विरक्ति का?”


“दो में दो चार के बंदी मत बनो। न गांधी के तीन बन्दर बनो जो असल में मिज़ारू, किकाज़ारु, और इवाज़ारु थे जापान में निक्को के तोशोगू मन्दिर के निवासी। कि बुरा न देखेंगे, न सुनेंगे, न बोलेंगे। काश चुना होता कि जो देखेंगे सुनेंगे वो बोलेंगे। अंधे बहरे गूँगे होकर क्या हासिल किया—आले पर सजे रहे या जापानी मन्दिर की दीवार पे। जान न पाए कि गणित के निरे मोड़ हैं और दो और दो मनगढ़ंत गणना है। जोड़ कुछ भी हो सकता है, हर दिशा में बहता हुआ।”


“कहानी गल्प स्वप्न होती है जो चलते-चलते अपने मतलब बनाती है।”


“अपने आप से त्रस्त होना हर त्रस्त होने से आगे।”


“सब आत्मविश्वास की बात है जो हँसी से फूटती है। ये अलग बात है कि जैसे हर चीज़ का दुरुपयोग किया जाता है मुस्कान का भी हो रहा है और आज सड़कों पर मुस्कान घूम रही है पर लम्पट दुष्कर्मी दुराचारी दुष्ट चपत लगाती, चपेट में लेती, चोट पहुँचाती और हँसी रह गयी है, उसकी दया ग़ायब है।”


“दुनिया को साहित्य की सख़्त ज़रूरत है क्योंकि वो उम्मीद और जीवन का द्योतक है।”


“ज़्यादा कुरेदो मत, वो जो हैं उन्हें रहने दो। एक धर्म कि दो। एक जन कि दो। भूल जाओ।”


“दूर जो है वो वहीं छिपा है। पास देखो अगर देखना है, वो ही दृष्टि को दूर तक ले जाएगा।”


“परिवार अपनी चाल नहीं छोड़ता और अपने को ढाल मानना भी नहीं। उसकी पुरानी मोहब्बत है अधमरी चिड़िया। वो हो जाओ तो अपार प्यार और जिन्होंने उसे ये बनाया उन पर ग़ुस्सा-वार। अब चिड़िया के मरगिल्ले पंखों में हवा फूँको, हमारी टेक ले के लो थोड़ा-थोड़ा उड़ लो, बस-बस ज़्यादा नहीं, नहीं नहीं, हमारी मदद बग़ैर क़तई नहीं, गिर पड़ोगी, मसली जाओगी।”


“पाकिस्तान कितनी दूर है। जिस पर अम्मा कुछ चिढ़ गयीं—वो वहीं है जहाँ है। हम दूर हैं।”


“तुम्हें नहीं लगता कि जवानी ग़लत समय पे आती है? जब हम नादान होते हैं, कुछ जिया नहीं होता। आती है और निकल जाती है, हमें पता नहीं चलता। बुढ़ापे में आनी चाहिए। पूरमपूर अनुभवी होने के बाद। तब ललकने का मतलब खुलता है। जवानी की बारीकियाँ मज़ा देती हैं। समझ आता है।”


“कट्टरतंत्र और शासनतंत्र को समाधियाँ रास नहीं आतीं, न कहानियाँ, न भूपेन खक्खर। उन्हें बंद करना रास आता है। फ़ाइल, डब्बा, बक्सा। कोई नहीं कह रहा कि सिर्फ़ घूस पे या बेईमानियों पे। कहानियों पे भी और ख़ासकर औरताना हों तो। ये न हिलें तो ठीक। क़ब्र बना दो, वो भी ऐसी कि कभी न फटे। औरतों को ख़ासकर वहाँ उतार दो जहाँ उनकी चमक मिटती जाए, रंग फिकाता जाए, खाल झरती जाए, हड्डी गलती जाए। ख़ुशबू उड़ा जाए। कट्टर ढक्कन नहीं खिसकाते क्योंकि ख़ुशबू का इतराना उन्हें स्वीकार नहीं।”


“सरहद बंद नहीं करती, खोलती है। आकार बनाती है। किनारा सजाती है। किनारी का इस तरफ़ भी खिल जाता है और उस तरफ़ भी। नक़्क़ाशी कर लो, बेलबूटे टिमका दो, असली नगीने लगा दो। क्या है बॉर्डर? वजूद को उभारता। ताक़त देता। न कि चीरता।

बॉर्डर पहचान बढ़ाता है। जहाँ दो तरफ़ मिलते हैं और दोनों तरफ़ खिलते हैं। बॉर्डर उनके मिलने को सजाता है।

हर अंग की सरहद होती है। इस दिल की भी। उसको घेरे मगर उसको बाहर के अंगों से पुल की तरह जोड़े। न कि तोड़ने, दिल के भीतर और दिल के बाहर। मनहूसों, दिल के बीच में सरहद खींच दोगे तो उसे बॉर्डर नहीं कहते, चोट कहते हैं।”


“सरहद, भलेमानस, पार करने की चीज़ है।

बॉर्डर माने कूदो। है ही कि लाँघो, लौटो, खेलो, मुस्करा के स्वागत करो, वहाँ मिलो रचो।

मज़ा है उसे लाँघने में। सारा लेन-देन वहीं होता है। सरहद अपने को दर्शाती है दूसरे से राब्ता करने। एक है तो दूसरा है। मोहब्बत में।”


“भूलना किसे कहते हैं सोचो। जो होता है सोच के होता है कि भूलकर? जो हुआ सोचने वालों ने किया कि सोच बंद कर देने वालों ने? भूलना मर जाना है। मैं मरी नहीं हूँ।”


“हासिल, वो इतनी ज़ोर से बोलीं कि ख़ूनी अन्दर झाँकने लगे। ये ही वो लफ़्ज़ जो धर्मों देशों को बरगलाता है, बाँटता है। हासिल करो, अलग होकर, साथ तोड़कर। मुल्क बनाओ, मज़हब बचाओ। मुल्क बनता है कि टूटता है? मज़हब बढ़ता है कि सिकुड़ता है?”


“सबकी भन-भन सुननी है तो मच्छर बन जाओ, नम हो जाना है तो बदरा, सींग मारने हैं तो देश का सरदार, नाचना है तो हवा, रोना है तो दुम, नदी होना है तो माँ, चक्कर काटता बंदी जानवर तो बेटी और क़िस्सा रोक देना है तो यहाँ हो जाओ, क्योंकि क़िस्सा ख़त्म तो होता नहीं, रुक सकता है।”


“लोग मानने को नहीं तैयार कि क़िस्से सच्चे होते हैं। अतिरंजनाएँ, अयथार्थ, मिथक, सब। सच नहीं तो वो क़िस्सा जो यथार्थ की थोथी समझ में सच माना जाता है।”


“आपस में डोर हो और स्नेह और अपनत्व तो साथ पौधों को निहारना, साथ हरे-हरे होना, साथ चुप रहना, सब संवाद हैं।”


“अच्छे दृश्य रचो और कला संगीत वातावरण में फैलाओ तो कितने वैमनस्य भुरभुराए चूने की माफिक झर जाएँगे। प्रीतिकर भावों की फुहारें बहेंगी।”


“माफ़ी, हमने नहीं किया पर जो होता है हमसे होता है, माफ़ी।”


“सब के कुछ अपने ख़ास निजी तार जुड़ते हैं। उससे उनके जी जुड़ते हैं। घर के सदस्य अपने चक्करों में जीने में व्यस्त थे पर उनके अलावा भी रिश्ते बनते हैं जो उनसे भी ज़्यादा अज़ीज़ होते हैं। बाक़ी तो कौन जानता है कि एक छत के नीचे और उन्हीं दीवारों-दरवाज़े के पीछे कितने लोग हैं जो एक-दूसरे से नितान्त अलग रहते चले जा रहे हैं?”


“इस दुनिया में कितना है जो दर्ज नहीं इतिहास के पन्नों में। हवा में बह रहा है। पहचान सको तो पहचानो। उसको फेंको नहीं, उसको इज़्ज़त-अफ़ज़ाई करो।”

अरुंधति रॉय की किताब 'मामूली चीज़ों का देवता' से उद्धरण

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