अंजुरी भर प्रार्थनाएँ
बड़ी मुश्किल से जुटा पाती हूँ
विषमता से उपजा
आर्तगान!
श्रद्धा के दुर्लभ पुष्प
आस के तरु से
सहेजकर रखती हूँ
विभिन्न रंग की अनगिनत
कामना के संग।
हे देव!
विषमता ही तुम तक
पहुँच पाने का प्रशस्त मार्ग क्योंकर है!
अनुकूलता में क्यों भूलती हूँ
सुगम पथ।
घंटियों से उपजी तरंगित ध्वनियाँ
सुखानुभूति है
तथापि मैं बरबस सांसारिकता में
उलझकर वंचित रहती हूँ
आत्मसुख से।
असफलता भय आशंकाएँ ही
तुम तक पहुँचने की
सीढ़ियाँ क्यों बनाती हैं…
असीमित कामना के भार
से दबी अंजुरी भर प्रार्थनाएँ
मुठ्ठी भर कनेर हरितबिल्वपत्र
लोटे भर अर्घ्य
अब संकोच का कारण हैं
मैं रखना चाहती हूँ
तुम्हारी चौखट पर
रिक्त मन!

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प्रीति कर्ण
कविताएँ नहीं लिखती कलात्मकता से जीवन में रचे बसे रंग उकेर लेती हूं भाव तूलिका से। कुछ प्रकृति के मोहपाश की अभिव्यंजनाएं।