जब तक थे वे
जंगलों में
मांदर बजाते, बाँसुरी बजाते
करते जानवरों का शिकार
अधनंगे शरीर
वे बहुत भले थे
तब तक उनसे अच्छा था नहीं दूसरा कोई
नज़रों में तुम्हारी
छब्बीस जनवरी को राजधानी के मार्गों में नाचने तक
लगते थे वे तुम्हें बहुत भोले-भाले
परन्तु अब
वे नज़रों में तुम्हारी हो गए हैं बुरे
उग्रवादी, आतंकवादी, दिग्भ्रमित, बुद्धिहीन
और न जाने क्या-क्या!
हाँ, उनमें आ गई है अब एक बुराई
वे—
कुछ-कुछ सोचने लगे हैं
कुछ-कुछ बोलने लगे हैं
कुछ-कुछ माँगने लगे हैं।
महादेव टोप्पो की कविता 'प्रश्नों के तहख़ानों में'