इतने लोग नहीं रहे दुनिया में
शुरू से कितने
लिखा नहीं मिलता
किसी भी किताब में
पटकथा रहे सहे लोगों की व्यथा
रब और रोटी का द्वंद्व है
अरबों-ख़रब साल से
द्वंद्व की यह लीला चल रही
रीति को झोंककर भट्टी में
विपरीत की
भूख-भूख चीख़कर मंच पर
कोई एक छोकरा
तेज़ धार वाले औज़ार से
तहस-नहस
कर देता वादियाँ
वह सिर्फ़ रोटी से
शांत कहाँ होती है।
भूख का निरुक्त बड़ा निर्मम—
भूख परचम—
बलात्कार, हत्या, लूट, झूठ का।
रत्न, सिंहासन, सम्पदा
घायल कर सारे भूगोल को
एक दिन उड़ान-भर निरभ्र में
पता नहीं भूख कहाँ
ग़ायब हो जाती है
कैसे कब भूख ने रब रचा
जन्म दिया ईश्वर को
भय रहा होगा या शायद
नव ढब वाली वासना
कहना मुश्किल
बड़ा जटिल जंगल है आदिम विश्वासों का
वासना—जिनकी पोशाक पहन
अलगाव को जन्म देती है
अपनों से दूर कर देती रोटी
इस दुनिया में
रब किसी कल्पित भविष्य में
जानना तनाव है कहना भी—
इंसानियत महज़ अफ़वाह
हर कोई बंद अपनी निष्ठा
ईमान, अपनी किताब, विश्वासों
के घेरे में
बुद्ध नहीं, युद्ध मुद्रा अपनाए
फँसा पड़ा सदियों से
मेरे या तेरे के फेरे में—
तृष्णा के भूख के ग़ुलाम
सिकन्दर, नैपोलियन, तैमूर
सबको अपने ईश्वर पर
गुमान था
जिस आदमी ने जलाया हिरोशिमा
तबाह किया
उसने भी दुहराया था यही—
रब मेरे साथ है।
कैलाश वाजपेयी की कविता 'जब तुम्हें पता चलता'