‘Roti Banate Hue Pita’, a poem by Usha Dashora
मेरे छोटे हाथ में चीनी के दाने होते
दूसरे हाथ में पिता की उँगली
और पाँवों में सात नम्बर की बड़ी चप्पल
वो भी उल्टी पहनी हुई
क्यारियों में घूम रही चींटियों को
चीनी खिलाकर और
उनकी लम्बी कतारों को देखकर ही
मेरी शाम रात के चोले में आती
आबोदाना लेकर जब चींटियाँ
अपने घर लौट जातीं
तब मैं बाहर वाली फाटक पर
सवारियों से भरी बस वाले
कण्डक्टर की तरह एक पाँव
हवा में लटकाकर खड़ी होती
और पिता मुझे वहाँ झुलाते
पिता घर जल्दी आते थे
और माँ उनके कुछ देर बाद
मेरे घर की रोटी
स्त्रीलिंग और पुल्लिंग के
बासी नियमों से आबद्ध नहीं थी
हमारी रसोई के सारे कार्य-प्रकार्य
इस्पात के साँचे से बाहर ढले हुए थे
जो पानी की तरह अपनी शक्ल बदलते थे
उन पर लिंगों का कोई ठप्पा न था
तभी तो रोटी बनाते हुए पिता
कितने ख़ूबसूरत लगते थे
घण्टी बजते ही इस अमरावती में
माँ के लिए दरवाज़ा मैं ही खोलती
तब रोटी बनाते हुए पिता
आटे से सने हाथों से बाहर झाँकते हुए
रसोई से गुनगुना रहे होते-
“तुमको देखा तो ये ख़्याल आया…”
तब माँ की खिलखिलाहट
स्त्री बंधन के व्याकरण को
ध्वस्त कर रही होती।
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