सुबह के कामों से फ़ारिग होते ही उसका पहला काम होता रोटला बनाना। वह हर रोज़ गिनकर चार रोटला बनाती; बाजरी के आटे में थोड़ा-सा नमक मिलाकर उसे गूँथती, फिर जीव की जतन से, उससे कलेड़ी (मिट्टी का छोटा तवा) भर का रोटला बनाती, रोटला अच्छी तरह से सिक जाए, इसके लिए चूल्हे की आँच को ज़रा तेज़ करती… वह रोटलों को अच्छी तरह से झूर करती; झूर और कड़ा रोटला… चबाने में अच्छा लगता; और मीठा भी। एकाध प्याज़ या चुटकी भर लहसुन-मीर्च की चटनी हो, तो भी दोपहर को ऐसा रोटला गले में अटकता नहीं—यह हेता की अपनी सूझ थी।

चाय की पतीली उतारकर वह चूल्हे को बुझा देती, फिर तीन रोटलों को दोपहर के कलेवा के लिए बाँध लेती और बाक़ी बचे एक के दो टुकड़े करती। फिर ‘होमवर्क’ करते बेटे को पुकारती, “रघूऽ…! चल बेटा, दो घूँट चाय पी ले।”

रघु बस्ता सम्भालता-सम्भालता स्लेट, किताबें, कापियाँ बसते में रखता, फिर सीधे जाकर हेता के सामने बैठ जाता।

‘कुरुर-कुरुर’ चबाते हुए वह एक कप चाय के साथ आधा रोटला खा जाता। उसकी जीभ लपलपाती हो, तो भी वह और रोटला नहीं माँगता। हेता आग्रह करती, फिर भी वह नहीं मानता। उसे पता है कि अब जो भी मिलेगा, वह माँ के हिस्से का ही मिलेगा।

इसलिए माँ के आग्रह से बचने के लिए तथा उसका मन रखने के लिए वह एक कौर को चालीस बार चबाता और माँ को समझाता कि हमारे मास्टरजी सिखाते हैं—”चालीस बार चबाने से भूख मिटती है, ख़ून बढ़ता है और खाना जल्दी हज़म होता है।”

बेटे की इस समझदारी पर हेता झूम उठती। तभी उसे दोपहर के समय बिना चबाए जल्दी-जल्दी कौर को निगलते अपने पति धनजी की याद आ जाती है। पेट में उमड़ता-घुमड़ता सवाल एकदम ओठ तक आकर रुक जाता है। बाक़ी बचे रोटले को वह एक डब्बे में रख देती है। मटकी में यदि बचा हो तो गुड़ की एक-दो डली भी रख देती है। फिर बड़े दुलार से कहती है, “बेटा रघुऽ! ई रोटला साथ लेता जा, दुपहर में छुट्टी होने पर खाकर पानी पी लेना।”

दोपहर को खाने की छुट्टी होने पर रघु को भूख लगती है, सबके साथ वह भी अपना डब्बा खोलकर खाने बैठ जाता है, खाते समय उसका ध्यान अपने डब्बे पर ही रहता है। इसलिए उसके आसपास की नज़रें उसे किस भाव से निहार रही हैं, इसका होश उसे नहीं रहता। पर चार-पाँच दिनों के बाद, अचानक उसे महसूस होता है कि आसपास की नज़रें उसे कुछ कुतूहलपूर्ण भाव से निहारती हैं। उनमें घृणा होती है, उपहास होता है, मज़ाक़ होता है, हास्य भी होता है, परंतु बिच्छु के डंक जैसा।

थोड़े दिनों के बाद रघु को समझ में आ जाता है कि सभी उससे दूर भागने की, अलग रहने की कोशिश करते हैं। दोपहर की छुट्टी होते ही सभी दौड़कर नाश्ता करने की जगह को ऐसे घेर लेते हैं कि रघू को वहाँ बैठने का मौक़ा ही न मिले। अब उसे खाने के लिए दूर कोने में खड़ा रहना पड़ता है, बंद खिड़की के आले में डब्बा रखकर वह बड़े-बड़े कौर मुँह में डालने लगता है, चालीस बार चबाने की गुरुजी की सीख वह भूल जाता है। फिर पानी पीने के लिए सबसे पहले दौड़ पड़ता है। उसे लगता कि उपेक्षा और घृणा से भरी वे तीखी निगाहें उसके बाजरी के रोटल को तिरस्कार से देख रही होंगी, उसके पुराने-धुराने, मैले-कुचले डब्बे को देखकर उन लोगों को ओकाई आती होगी।

रघू को चकोर नज़र निहारती है – उन सबों के डिब्बे स्टील के, अथवा रंग-बिरंगे सुंदर प्लास्टिक के होते हैं, उनमें पूरियाँ होती हैं, घी चुपड़ी रोटियाँ होती हैं, सैंडविच या मक्खन लगी डबल रोटी होती है, तरह-तरह की सब्जियाँ होती हैं, अचार होता है, मिठाइयाँ होती हैं, मुँह में पानी आ जाए ऐसी बानगियाँ होती हैं। रघु को तो उनके नाम भी नहीं आते। कई बानगियों को तो उसने जीवन में पहली बार देखा था। तो क्या उसे उनके चखने या उनके स्वाद की सिर्फ़ बातें ही करनी होगी? वे सब आपस में मिल-जुलकर एक-दूसरे की वस्तुओं को अदल-बदलकर और तारीफ़ करते हए खाते हैं—

“तुम्हारी मम्मी का बनाया हुआ बफ वंडरफ़ुल है।”

“बाईगॉड विपुल! तुम्हारी मम्मी की सूखी सब्ज़ी का टेस्ट तो कुछ अलग ही है।”

“मेरी मम्मी इडली-डोसा की रेसिपी लेने के लिए तुम्हारी मम्मी के पास आने वाली हैं मिन्टू!”

रघु को ये सब बातें समझ में नहीं आती, परंतु वह जो कुछ सुनता, वह सब उसे याद रह जाता। वह उन्हें तिरछी निगाहों से देखता, तो उसे लगता कि वे सभी भेड़िये की तरह आँखें फाड़े खाँड़ा रोटला खाते उसे ही देखते रहे हैं। कभी-कभी उसे सुनायी पड़ जाता—”हंगरी डॉग!”

रघू इस दुर्भाव का कारण समझ नहीं पाता। शुरुआत में वह यही सोचा करता कि एकाध बार कोई उससे भी माँगेगा— “ला तो रघु थोड़ा-सा अपना ड्राई ब्रेड!”

चबाकर उसकी मिठास का कमाल देखेंगे, तब वे भी माँ के बनाए रोटले की तारीफ़ करेंगे। परंतु, अरुचिकर कुतूहल से उसके रोटले को देखने के बाद कोई उसके साथ हिस्सेदारी के लिए तैयार नहीं होता। उनका मौन तिरस्कार मानो पुकार-पुकारकर कहता— “अरे हट्! ….दूर हट! तू हमारी बराबरी करने लायक़ नहीं है। तू हमारे बीच क्यों आता है? तेरे दुर्गंध वाले रोटले को देखकर हमें उबकाई आती है।”

यह दुर्भाव और द्वेष जान लेने के बाद तो अब रघु की हिम्मत नहीं पड़ती कि वह रोटला लेकर आए। दोपहर की छुट्टी होते ही वह सबसे दूर चला जाता है, भूख और प्यास दोनों की तृप्ति वह पानी से ही कर लेता है। उसे भूख लगती है—कड़ाके की भूख लगती है, परंतु सहयोगियों की तीखी नज़रों को वह सह नहीं पाता। इसलिए टिफ़िन लाने के लिए वह साफ़ इंकार कर देता है। हेता यह समझ नहीं पाती कि ख़ुशी-ख़ुशी आधा रोटल गटक जाने वाले मेरे लाल को आख़िर हो क्या गया है?

पहले हेता का बनाया रोटला उसे ख़ूब भाता, कभी चक्की में आटा नहीं पिसवाती, एकदम सुबह उठकर अपने जाँत में ही आटा पीस लेती है। अपने हाथ से पिसे आटे का रोटला बनाते समय तो वह उसमें अपनी पूरी जान उड़ेल देती। रघु को तथा उसके बाप धनजी को कड़ा और चुरचुरा रोटला ही अधिक पसंद आता। हेता उनमें तनिक भी कमी नहीं आने देती। उसके दोनों हाथ ‘टप् टपा टप्’ करते ही रहते और हथेलियों के बीच आटे की लोई ‘चनरमा’ जैसा गोल आकार धारण करने लगती, और रघू यह सब देखता रहता। परकार की मदद से कक्षा में अध्यापक जब श्यामपट्ट पर वृत्त खींचते, तो उसमें भी उसे हमेशा माँ के हाथ से बनते रोटल का गोल आकार ही दिखायी पड़ता।

कलेड़ी में रोटला डालने के बाद हेता पलटे से उसे एक-दो बार घुमाती, फिर सिकते रोटले की सोंधी गंध हृदय को भर देती। रघु सुबह में उठकर पढ़ने बैठा होता या ‘होमवर्क’ कर रहा होता, सिकते रोटले की सोंधी गंध वहाँ तक पहुँच जाती और उसकी जीभ से लार टपकने लगता, फिर वह चूल्हे के पास पहुँच जाता और हेता उसका इरादा समझ जाती।

“देख बेटा! आज तो रोटला ख़ूब झूर कर दिया है… एकदम कुरुर-कुरुर। पर ज़रा ठंडा पड़ने दे, तब तोड़ना, इसकी पपड़ी पापड़ से भी जियादे चुरचुरी है। देख, जल्दी न करना। नहीं तो अंगुली जल जाएगा।”

और फिर एक खाँडा रोटला कब ख़त्म हो जाता, रघू को इसका ध्यान भी नहीं रहता। बस! उसकी जीभ पर रोटले की मिठास चटपटाती रहती। उसके माँ-बाप पूरे दिन की मजूरी जाते। सरकार ने जब से मजूरों के लिए कानून बनाया है, तब से तो मजूरी पर ले जाने वाले खेत मालिक मजूरों को दोपहर का रोटला भी नहीं देते। पहले तो मजूरी भी मिलती और दोपहर का खाने को भी मिलता। खाने में मालकिन का बनाया हुआ बड़ा-बड़ा रोटला होता, उसके साथ मूँग और मोथी की घुघुरी होती, या तो अरहर की गाढधी दाल होती। मालिक यदि रहमदिल होता, तो रोटले के साथ अचार की एक फाँक या छंदा (आम का लच्छेदार मीठा आचार) भी लाता। मरदों को दो रोटला मिलता और औरतों को डेढ़। गोद के बच्चे को सम्भालने के लिए यदि कोई बच्चा साथ में आया होता, तो उसका भी पालन हो जाता। हेता उन सुखी दिनों को याद कर-करके प्रायः सिसास छोड़ा करती—”कवन जाने अब क्या हो गया है? तब दिल बड़ा था और बड़े दिल वालों की दया थी। आज तो सरकार ने जब से हमारी खातिर कानून बनाया है, तब से न तो खाने भर की मजुरी मिलती है और न रह-रहकर याद आने वाला दोपहर का खाना ही मिलता है। अउर ऊपर से महँगाई इतनी जियादे हो गई है कि आगे लोग किस भरोसे जिएँगे, इहै समझ में नहीं आता। कलजुग! घोर कलजुग!!”

इसी एक कारण से ‘अगातम’ का विचार करके वे भूख सहन करके भी बेटे को पढ़ाना चाहते थे। लड़का होनहार है, इसीलिए एक बड़े आदमी की सिफ़ारिश से उसको शहर के एक स्कूल में भर्ती करवाया है। तीन मील पैदल चलकर रघु बस पकड़ता है, फिर बस से बीस मील की यात्रा करके स्कूल पहुँचता है। शहर का स्कूल, मतलब अच्छी पढ़ाई-लिखाई! अच्छा है! बेटे का भविष्य सुधर जाएगा, हम तो पूरी जिनगी के लिए नसीब में जी तोड़ मजूरी लिखा लाए हो। पर बेटे के दिन तो फिरेंगे।

हेता के दिल में हाम (हिम्मत) है, गाँठ में दाम नहीं है। हर रोज़ वह कटोरी गिनकर बाजरी निकालती है—दो रोटला रघु के बाप के लिए, कमरतोड़ मेहनत जो करनी है, मरद मानुस को खाना तो चाहिए ना! एक खुद के लिए—एक कम थोड़े ही है, अरे! आदमी खाता है, तो डकार अवरत को आती है। एक रघू की खातिर—एक खाँडा सुबह के लिए और एक दुपहर के लिए। बस! यहीं पर हेता का कलेजा फटने लगता है। अपने पेटजाये का वह पूरी तरह से ध्यान रख नहीं पाती! रघु एक खाँड़ा अभी पूरा करता है कि वह अपने रोटला उसके आगे रख देती है—”ले बेटा। इतना अउर खा ले।” पर रघू समझदार है, वह जानता है कि माँ को सारे दिन मेहनत करनी है। इसलिए कहता है—”बस माई! पेट भर गया। अब भूख नहीं है।” और फिर वह सचमुच डकारने लगता है।

हेता के मुख से एक आह निकलकर रह जाती है—”भगवान! अइसा अकारथ जीवन तूने हमारे लिलार पर काहे को लिख दिया?”

परंतु अब हेता की चिंता बदल गई है। आह भरने की उसकी क़िस्मत भी उसके भगवान ने उससे छीन ली है। उल्टे अब तो प्रेमपूर्वक तैयार किए गए उसके रोटले को खाकर, आँतों की आग बुझाकर, दिन की शुभ शुरुआत करने वाला रघू, अब तो रोटला ले जाने से साफ़ इंकार कर देता है। जिस उमंग से वह रोटला खाता था, वह उमंग मानो अब लुट गई है। अब रघू खाता तो है… मानों माँ का मन रखने के लिए खाता हो, भूखे नहीं रहा जा सकता, इसलिए मजबूरी में खाता हो। उसके चेहरे पर पहले जैसी हरख नहीं दिखती।

हेता को कुछ समझ नहीं आता, उसको लगता है कि उसका रघू अब कुम्हलाता जा रहा है। उसे यह शंका होने लगी है कि उसके दमकते चेहरे की लाली अब सूखने लगी है। उसके रोटले को किसी की नज़र लग गई है, नहीं तो वह खाने की तरफ़ से मुँह काहे मोड़ लेता? हेता उसके सिर पर मिर्चा ‘अँइछ’ कर आग में जलाती है, एक बाझन और एक गाय को रोटल खिलाने की मन्नत मानती है, उसका हृदय आर्तनाद कर उठता है— “मैं अपने बेटे की खातिर दो बखत उपास कर लूँगा। किरपा करो परभू!”

पहले तो रघू घर आकर स्कूल की हर एक छोटी-बड़ी बात माँ-बाप को बताता, वह जो कुछ पढ़ता उसे बार-बार याद करता, जब वह अंग्रेज़ी शब्दों की स्पेलिंग रटता, तब हेता और धनजी को बैकुंठ नज़रों के सामने दिखायी पड़ने लगता, बेटा पढ़-लिखकर ज़रूर बालिस्ट बन जाएगा, हेता का भरोसा और पक्का हो जाता। वह दोनों हाथों को सिर पर रखकर आसमान की ओर देखने लगती और आँखें बंद कर लेती। धनजी सोचता—अब बुढ़ापे में टाँगें नहीं घिसनी पड़ेगी, जनम सवारथ हो जाएगा।

इस साल बरसात थोड़ी देर करने लगी, तब चिंता का मारा धनजी आँखों पर हथेली की छाया करके आसमान की ओर देखते हुए बोला, “बारिस के बादर कहीं दिखायी नहीं देते हेती! इब जाने ई साल काऽ होगा?” और हेता जवाब में कुछ कहे, उसके पहले ही किताब पर से नज़र हटाकर रघू बोल पड़ा—”दक्षिण-पश्चिम की मौसमी हवा बारिश लाती है बापू। तुम्हारे बादल नहीं, बारिश आएगी, हवा का दबाव ज़रा कम होने दो।”

धनजी और हेता दोनों जन यह सुनकर अवाक रह गए थे। हेता ने पति की ओर देखा, फिर बोली, “अजी सहर की पढ़ाई है। सहर वाले अइसे ही राज नहीं करते? इसका नाम गियान है!”

पर एक बार हेता झटका खा गई थी। कुछ लिखते-लिखते रघू माँ की ओर देखकर बोला था—”माँ! अपना यह घर हाउस नहीं है, इसे होम भी नहीं कहेंगे। यह देखो ‘हैपी होम’ का चित्र, अपने घर में और इसमें कितना फ़र्क़ है! हाँ, इसे ‘हट’ ज़रूर कहेंगे। ‘हट’ मतलब झोपड़ी। घर के बारे में निबन्ध लिख रहा हूँ माँ!”

उस रात हरारत की वजह से धनजी थोड़ा ढीला था।

“अजी सुनते हो? लगता है अपना लल्ला कुछ उल्टा-सुल्टा पढ़ रहा है। आज वह घर को झोपड़ी कह रहा था, अउर मुझे हट-हट बोल रहा था।”

करवट बदलकर धनजी ने जम्भाई ली—”दुविधा छोड़कर चुपचाप सो जा। उसकी पढ़ाई-लिखाई में अपनी बुद्धि काम नहीं करेगी।”

“पर अब तो वह रोटला भी अपने साथ नहीं ले जाता, सिरफ सुबह में खाता है, अउर वह भी बेमन से। मैं कितना गिड़गिड़ाती हूँ। पर मुझे बोलने ही नहीं देता।”

“रोटला तो तू बाँध ही दिया कर। अभी नया खून है, जब भूख लगेगी, तब खा लेगा। पढ़ाई बहुत मुसकिल है। चिंता के मारे बेचारा खा नहीं पाता होगा।” बोलते-बोलते धनजी ने करवट बदली और उसकी आँख लग गई।

हेता खुली आँखों से शून्य में देखती चित्त पड़ी रही। कोने में खटोले में रघू गहरी नींद में सो रहा था।

सुबह में रघु की आँखें ऐतराज़ करती रही थीं, फिर भी हेता ने टिफ़िन में रोटला भर दिया, और जब रघू बस्ता उठाकर चलने को तैयार हुआ, तो वह बोली, “ले बेटा! इसे साथ लेता जा! जो मिलता है, उसे खा लेना चाहिए मेरे लाल!”

“मैं नहीं ले जाऊँगा, एक बार कह दिया न! मैं…”

“बेटा! पहले तो तू रूखा-सूखा खा लेता था, पर अचानक तुमको ई काऽ हो गया कि अब तुम्हें कुछ रुचता ही नहीं है? मैं तुमसे मिन्नत करती हूँ मेरे लाल! …और अंदर गुड़ भी रखा है।”

“रोटले के सिवा तुम्हें दूसरा कुछ सूझता ही नहीं? सुबह भी रोटला, शाम को भी रोटला।”

डबडबाई आँखों से हेता बेटे के रूठे पदचिह्नों को देखते रह गई। सारे दिन उसे भाले की नोंक की तरह यह सवाल चुभता रहा—”रोटला के सिवा तुझे दूसरा कुछ सूझता ही नहीं?”

कहाँ से लाऊँ, अउर कवन-सी नियामत बनाऊँ उसके लिए?

उस रात धनजी मालिक के खलिहान में फ़सल की रखवाली के लिए रुक गया था। हेता ने कंट्रोल की दुकान से मिला गेहूँ निकाला, उसे बीन कर साफ़ किया, उसमें से थोड़े की दलिया बनायी और आध सेर का दरदर आटा बनाया। दलिया से उसने थुलू तैयार किया और दरदर आटे से कसार बनाया। पर रंग उसका ऐसा हो गया कि देखने में ही अच्छा न लगे। ढिबरी की रोशनी में रंग का पता नहीं चलेगा, यह सोचकर उसने मन को मनाया।

“रघू… रघू…”

शाम को उसने बड़े प्रेम से रघु को खाने के लिए बिठाया। आधी थाली में थुलू परोसा और एक किनारे पर कसार रखकर बोली, “देख बेटा! आज तेरे लिए मैंने कुछ नयी चीज बनाई। खा मेरे लाल! अन्नदेव पर कभी गुस्सा नहीं करते बेटा!”

सुबह के भूखे पेट रघू को गरम-गरम कंसार का दो-चार कौर बहुत अच्छा लगा। उसी भाव में, मानों माँ को मना रहा हो इस तरह वह बोला, “गेहूँ है, तो रोटी बनाती, फिर क्या मैं ले नहीं जाता…?”

हेता समझ गई, उठते निसास को अंदर दबाते हुए समझाने के स्वर में बोली, “देख बेटा! इस कसार और थुलू में दो बूंद तेल होता, तो वह रूखा-सूखा भी गले से नीचे उतरता। यह गरमगरम है, तभी दो-एक कौर गले से नीचे उतरेगा, नहीं तो तुरंत बाहर आ जाएगा। इस गेहूँ की रोटी मैं बना तो सकती हूँ बेटा, पर तेल के बिना बनाऊँ कैसे? सीसी में बूंद भर तेल नहीं है। घी की तरह तेल भी हमारे लिए दुर्लभ हो गया है बेटा। हम तेल पर पइसा नहीं खरच सकते, …अउर ई तो ढिबरी की मद्धिम रोसनी में तुमको पता नहीं चलता, नहीं तो रासन के गेहूँ की बिना तेल की रोटी दोपहर तक अइसी चिममर हो जाएगी कि तोड़ने से जल्दी टेगी नहीं। अउर फथ्र काली अइसी कि उसे देखकर तुम्हें मुँह में डालने की इच्छा नहीं होगी। गरमी की बजरी का रोटल देखने में अच्छा लगता है अउर…”

हेता के शब्द रघु के कान के आर-पार निकल रहे थे और उसके दिमाग़ में हलचल मचा रहे थे। उसकी आँखों के सामने बीच की अंगुलियों में रोटी दबाकर तर्जनी तथा अंगूठे की मदद से ग्रास तोड़ते उसके सहपाठी दिखायी देने लगे। वह कौन-सा गेहूँ होगा? उसका रंग तो मुँह में पानी ला देता था। वह किस हवा-पानी में पकता होगा? वो लोग जिस टेबल पर बैठकर खाना खाते हैं, वह भी तेल से चीकट हो गया होगा। उनको तेल की कमी क्यों नहीं होती? तेल टपकते नए-नए व्यंजन उनके यहाँ कहाँ से आते होंगे?

बीच में ही रुके रघु के हाथ को देखकर हेता ने उसे टोका—”कउन-से विचार में पड़ गए बेटा? जो रुचे वो खा लो।”

माँ की बात रघू की समझ में आ गई, ठंडा हो गया कसार अब मुँह में चिपक रहा था, जैसे-तैसे करके पाँच-छ कौर थुलू उसने गले से नीचे उतारा। उसकी थाली में जो कुछ बचा था, उसे ख़ुद खाकर हेता ने बाक़ी बचा थुलू और कसार धनजी के लिए खलिहान में भेजा।

लालटेन के उजाले में रघू भूगोल की किताब के पन्ने पटल रहा था। वह गेहूँ की क़िस्मों को जानना चाहता था। दक्षिण भारतीय लोगों का मुख्य खुराक भात होता है। और पंजाबी लोगों का गेहूँ, तो फिर गुजरातियों में उसकी ख़ुद की गिनती होती है कि नहीं, यह सवाल उसे उलझन में डाले हुए था। तभी बिना तेल के उसके रुखे बालों में स्नेहपूर्वक अंगुलियाँ फिराते हुए हेता बोली, “जियादे विचार मत कर बेटा। पहले दुख-तकलीफ सह करके पढ़-लिख ले, बाद में सब ठीक हो जाएगा।”

होत सुबह पड़ोसी के कुंधों का सहारा लेता हिलता-काँपता धनजी घर आया। उसकी हरारत तेज बुख़ार में पलट गई थी। थर-थर काँपते पति के शरीर की ठंड दूर करने की हड़बड़ी में हेता रोटला बनाना भूल गई। वह अभी चाय का पानी ही उबाल रही थी कि रघु उसके सामने आकर बोला, “माँ! बस का पास।”

हेता चूल्हे की आँच की ओर देखती रही, फिर उठकर पटरे के नीचे दबे मुसे-तुसे काग़ज़ों में से नोट निकाला, पाँच-पाँच के तीन नोट थे। अभी और पाँच रुपया कम पड़ता था। उसके लिए वह पड़ोस में दौड़ी। वापस आयी तो उसके चेहरे पर झेंप साफ़ दिखायी पड़ रही थी। पाँच के चिल्लर तथा पाँच-पाँच के वे तीन नोट उसने रघु के हाथ पर रख दिए।

उस दिन चौथा पीरियड खेलकूद का था, और उसके बाद दोपहर की लम्बी रिसेस होने वाली थी। रघू ने बस का पास निकलवाने की छुट्टी ले ली। एकदम ख़ाली कक्षा में वह बस्ते में से पुराना पास निकाल रहा था कि तभी उसकी नज़र मिन्टू के बस्ते में से झाँकते प्लास्टिक के डिब्बे पर पड़ी। उसने बहुत कोशिश की, उसकी नज़र तो वहाँ से हटी, पर मन वहाँ से नहीं हटा—”वे सब चटकारें ले-लेकर, तारीफ़ कर-करके खाते हैं, तो उसका स्वाद कैसा होगा?”

वह अपने मन के साथ लड़ता रहा, तभी उसके दिमाग़ में एक विचार कौंध गया, उसने इधर-उधर देखा और मिन्टू का डब्बा पीछे वाली खिड़की के पास रख दिया, फिर सामने से बाहर निकला, उसके बाद तो उस डब्बे को भी पंख लग गए।

रास्ते में विचार आया कि बस स्टैंड पर तो और लोग होंगे, फिर कहाँ बैठकर खाऊँ? सामने ही नगरपालिका के अस्पताल के पिछवाड़े की सूनी सीढ़ियाँ दिखायी पड़ीं। वहीं बैठकर उसने नाश्ता ख़त्म किया। कभी चखने को भी न मिले, ऐसा अद्भुत स्वाद।
पास निकालकर जब वह स्कूल में आया, तब पाँचवाँ पीरियड चल रहा था, और मिन्टू शिकायत कर रहा था कि किसी ने उसके नाश्ते का डिब्बा चुरा लिया है। परंतु अंग्रेज़ी के अध्यापक पढ़ाने के मूड में थे, इसलिए बोले, “घर से ही नहीं लाया होगा, भूल गया होगा।”

“नहीं सर! ये लाया था, हमने देखा था।” कितने ही स्वर एक साथ साक्षी देने लगे। उन सबकी नज़रें रघू को बेध रही थीं, पर सीधे कहने की किसी की हिम्मत नहीं होती थी।

“ठीक है, अपने क्लास टीचर से शिकायत करना।” कहकर वे चले गए।

क्लास टीचर का पीरियड आख़िर में आया। शिकायत हुई, तो वे हँस पड़े—”अब तो छूटने का समय हुआ, घर जाकर खा लेना।”

बस में बैठने के बाद रघू को अपने आप पर ग़ुस्सा चढ़ा। आज दोपहर के बाद एक साथ सौ आँखें उसे बेध रही थीं। उस समय किसी की ओर नज़र उठाकर वह देख नहीं सका था।

कबड्डी में कोई उसकी बराबरी नहीं कर सकता था, क्रिकेट के शिक्षक कहते— “रघू तुझे उचित प्रशिक्षण मिले, तो तू दूसरा कस्सन घावरी बनेगा।” भूगोल के अध्यापक पहला सवाल उसी से करते, संस्कृत के पंडित शुद्ध उच्चारण के साथ उसे श्लोक बोलते सुनकर सिर पीट लेते, अंग्रेज़ी के ‘सर’ उसकी कुशलता से चिढ़ उठते, गणित के अध्यापक शंका करते हुए हमेशा यही पूछते कि तू किसके पास ट्यूशन पढ़ता है? कक्षा में वह सीना तान सकता था, फिर भी उसे यह एहसास हुए बिना नहीं रहता कि एक गुजराती के अध्यापक को छोड़कर दूसरा कोई उसे उचित मौक़ा या प्रोत्साहन नहीं देता। …और सहपाठी तो सभी जल उठते थे। वे सभी उसको, उसके कपड़ों को, उसके अद्भुत कौशल को तथा उसके रोटले को हिकारत की नज़र से देखते थे। मिन्टू के चेहरे पर भूख की प्रतीति नहीं होती थी, पर रघू के मन में जहाँ कुछ कचोट रहा था, वहीं कुछ अच्छा भी लग रहा था।

उस शाम रघू जब घर पहुँचा, तब उसके बापू की हालत अधिक ख़राब थी, घर में दवा के लिए पैसा न था। हेता ने राशन के गेहूँ का राब बना रखा था। धनजी के गले से वह उतर नहीं रहा था। पर हेता का दुःख न हो, इसलिए वह कटोरी में जितना था, उतना खा गया, और दूसरे ही पल उसे उल्टी हो गई।

“मैं कहता था न! पर तू नहीं मानी! दो दिन उपास करूँगा, तो बुखार अपने आप गायब जाएगा।”

कुल्ला करके धनजी ने करवट बदल ली।

बाप की हालत देखने के बाद दोपहर की कसक रघु को इस समय और अधिक पीड़ित करने लगी थी। हेता के आग्रह करने पर भी उसने राब नहीं खाया।

“पहले तू पढ़-लिखकर लाट साव बन जा, उसके बाद अपने मन की नियामत खाना, पर इस समय तो तू मेरा खून मत पी।”

हेता के मुँह से अनायास मन की भड़ास निकल गई।

उस रात तीनों जन जागते रहे, धनजी तेज़ बुख़ार के कारण आकुल-व्याकुल होकर करवटें बदल रहा था। उधर हेता बेटे के मन को दुःख पहुँचाने की वजह से कलप रही थी, और रघू मन ही मन भविष्य में फिर कभी ग़लत काम न करने का निश्चय करने में लगा हुआ था। गुजराती के अध्यापक ने आज अखा भगत का एक पद सिखाया था—”काचो पारो खावु अन्न। तेवु छे चोरीनो धन।।”

अगली सुबह रघू ने ख़ुद ही पूछा, “आज रोटला नहीं बनाया माँ?”

हेता की आँखें भर आयीं—”तीन दिन से तेरे बापू खाट पर पड़े हैं, दो दिन से में भी काम पर नहीं गई। आज आटा नहीं है बेटा!”

“मेरा पास निकलवाया न कल…” बंद होठों में रघू ज़रा हँसा, फिर स्कूल चला गया।

वह कक्षा में पहुँचा। आज उसने मिन्टू को बहुत ख़ुश देखा। विपुल के हाथ पर ताली देते हुए वह उससे कुछ कह रहा था। रघु के मन में आया कि चलो चलकर उससे माफ़ी माँग लूँ…

“नहीं, अभी नहीं, रिसेस में माँग लूँगा।”

पहला पीरियड अभी पूरा होने वाला ही था कि तभी मिन्टू के पापा डॉ. अमीन आए, उन्होंने क्लास टीचर से कुछ बातें की, फिर दोनों प्रिंसिपल के ऑफ़िस में गए। थोड़ी देर के बाद चपरासी आया और मिन्टू तथा रघू को बुलाकर ले गया। उनके बाहर निकलने के बाद विपुल अपने साथियों को कुछ समझा रहा था, और उधर ऑफ़िस की तरफ बढ़ते रघू के पाँव मानो फाँसी के तख़्ते की ओर जा रहे थे।

प्रिंसिपल की मेज़ पर मिन्टू का ख़ाली डिब्बा पड़ा था, और अस्पताल का कम्पाऊण्डर गवाही दे रहा था, “यह लड़का कल अस्पताल के पिछवाड़े के ज़ीने पर बैठकर इसी डब्बे में से नाश्ता कर रहा था। पानी पीकर नल के पास ही इसने डब्बा फेंक दिया था।”

प्रिंसिपल ने पूछा, “बोल! तुझे क्या कहना है?”

रघू की आँखें भर आयीं।

डॉ. अमीन बोले, “आप इसे रिस्टिकेट कीजिए साहब! ऐसे चोट्टे के साथ हमारी सोसाइटी के संस्कारी लड़के पढ़ेंगे, तो उनका भी संस्कार बिगड़ेगा। शिक्षा संस्कार डालने के लिए होती है, चोरों के लिए नहीं।”

Book by Joseph Macwan: