1

इधर उत्तरायण हुए सूर्य का मन
माघ जल के छींटों से तृप्त हुआ
और उधर गुलाबी सर्दी की तान ने
नायक जनवरी को फ़रवरी के प्रेम में लपेट लिया
दिन शरमाकर सिमट रहे हैं, रातें गल रही हैं

जादूगर बसन्त अपने सफ़र पर चल पड़ा है!

2

ना मालूम प्यार में वसंत आता है
या वसंत में प्यार हो जाता है!
पर जो भी हो, वह छा जाता है—
फूलों में, तितलियों में, चाहतों में, क़िस्सों में।
ये क़ैद भली लगती है,
मन बिना किसी जुर्म गिरफ़्तार हो जाता है।
इसी में मुक्ति है—स्वयं के अहं से मुक्ति!
मन को उसी की छवि चाहिए
स्वयं से मुक्ति दिलाता है जादूगर वसंत!
इस जादू में तर्क ढूँढने वाले प्रेमिल
फ़रवरी में नहीं रहते
वे हिसाब करने वाले मार्च के साथ चलते हैं!
प्रेम में दावेदारियाँ नहीं चलतीं
चलता है सिर्फ़ वसंत का जादू!

3

सांध्य दीप जल उठे,
पर अभी भी लगता है
सूरज का उजास मेरे आसपास है
अपनी आत्मा की धूप का एक टुकड़ा
उसने छोड़ा है मेरे हिय के आले में
मैं अपने हाथों से अपनी आँखों में
उस जिए पल को छुपा रही हूँ!
दिवस की रश्मियों ने
ये कौन से ठौर पर विश्रांति पायी है
वसंत को जादू में महारत हासिल है
और मुझे प्यार में वसंत हो जाने में!

4

लगता है प्रेम पाखी ने इस वसंत
अपने पंख मुझे सौंप दिए हैं।
अधरों पर मुस्कान की मिश्री तिरती है
और हिय में जलती है एक लौ!
और ये मेरे नयन न जाने कब,
किस चंचल नदी का पानी पी आए
सपनों का अंजन लगा
और हवा ने अपनी पूरी धमक उड़ेल दी मुझ पर!
आह! अब मैं कैसे पहुँचूँ अपने ठौर!
एक ही रास्ता बचा है…
आज जब धूप की अठखेलियाँ
चिड़ियों से धानी चूनर ओढ़े बैठी
धरा की चुगली करेंगी,
ठीक उसी क्षण मैं पिया संग
रच दूँगी अपने लिए एक नीला वितान….

5

वह कौन सा अदृश्य धागा है
जो मेरे प्रेम को विरल
और प्रतीक्षा को अविचल बना देता है
और वह सुई
जो बिना छेद किए नहीं लगाती टाँका
मेरे किसी भी सपने को
भर देती है सच की छलनी में
आस की मुट्ठी।

'फ़रवरी: वसंत और प्रेम की कविताएँ' - देवेश पथ सारिया

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