प्रिय पुतुल,
एक लम्बे अंतराल के बाद तुम्हें पत्र लिखने चला हूँ। तुमने विगत पत्र में गांधीजी की साहित्य-दृष्टि के सम्बन्ध में कुछ लिखने को कहा था। देख पुतुल, गांधी जी कर्मयोगी थे। उन्होंने इस विषय पर अलग से कभी भी माथा-पच्ची नहीं की। परंतु जीवन-भर वे इस विषय के संदर्भ में यत्र-तत्र कहते रहे हैं। उन स्फुट उक्तियों के आधार पर तथा उनके जीवन के माध्यम से व्यक्त किए योग के आधार पर ही इनके बारे में कुछ जा सकता है। विश्वनाथ पंडित या जगन्नाथ पंडित की तरह उन्होंने ‘दर्पण’ या ‘गंगाधर’ नहीं लिखा है। उनकी सारी विचारधारा उनके आजीवन व्यापी क्रियायोग में कार्य के रूप में अभिव्यक्त हुई। वे थ्योरी नहीं, प्रयोग छोड़कर गए। अपने जीवन को उन्होंने ख़ुद ‘सत्य प्रयोग’ कहा था। उन प्रयोगों के अंतराल में ही उनका शिल्पशास्त्र, अर्थशास्त्र, धर्मशास्त्र और साहित्यशास्त्र भी छिपा है। उनका जीवन ही कर्म का ‘महाकाव्य’ था, कर्म की ‘ट्रेजेडी’ भी था, साथ ही कर्म का ‘साहित्य दर्पण’ और ‘रसगंगाधर’ भी था। मेरी प्यारी बहू, इस स्थल पर जवाहरलालजी के द्वारा कही हुई एक बड़ी ही ख़ूबसूरत बात का उद्धरण देना चाहूँगा— “उनके कठोर परिश्रम से भरे और लीक से हटकर निरंतर नए-नए प्रयोगों से परिपूर्ण व्यस्त और लम्बे जीवन में कहीं भी कुछ भी बेसुरा नहीं है, कुछ भी बेताल नहीं है, कहीं भी छंद-पतन नहीं होता है। उनके सारे बहुमुखी क्रिया-कलाप धीरे-धीरे एकजुट होकर एक समन्वित ‘राग’ (सिम्फ़नी) की रचना करते हैं जिसमें उनके हरेक काम और हरेक शब्द बिल्कुल ‘फ़िट’ बैठ जाते हैं, और इस तरह वे अनजाने तौर पर एक पूर्ण कलाकार हो जाते हैं, इससे यह बिल्कुल साफ़-साफ़ ज़ाहिर हो जाता है कि सत्य और अच्छाई जीवन को इस कलात्मकता तक पहुँचाते हैं। यहाँ तक कि उनकी मृत्यु के भीतर कला की एक महिमान्वित पूर्णता है। ऐसे जीवन वाले के लिए एकमात्र ऐसी मृत्यु ही उस जीवन के उपयुक्त चरम बिंदु उपस्थित कर सकती थी।”
जवाहरलालजी की इस उक्ति का सीधा अर्थ हुआ कि उनका जीवन ही स्वयं में एक महाकाव्य था, महाभारत जैसा महाकाव्य, जिसका समापन एक ट्रैजिक बोध के साथ होता है।
प्रिय पुतुल, मेरी समझ से गांधी जी को समझने की कुँजी तीन शब्दों में है—सत्य, अहिंसा और अभय। उनकी प्रत्येक विचारधारा में तीनों मौजूद हैं, पर विषयानुसार ज़ोर कभी एक पर है तो कभी दूसरे पर। उनकी राजनीति को समझना चाहो तो केंद्रीय शब्द अहिंसा और उनकी शिल्प-दृष्टि, रास-दृष्टि या साहित्य-दर्शन को समझना चाहो तो विशेष बल देना होगा ‘सत्य’ पर। उनकी शिल्प-दृष्टि का विवेचन करते समय मैंने तुम्हें बताया था कि शिल्प की रचनात्मक प्रक्रिया और रूपायन में ‘सत्य’ यानी ‘अकृत्रिमता’ ‘स्वाभाविकता’ सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, तो उस शिल्प की उपयोगिता के संदर्भ में ‘अहिंसा’ प्रमुख हो जाती है। क्योंकि शिल्प की उपयोगिता से जुड़ा है आत्मा के विकास का प्रश्न और मानवीय न्याय-बोध का प्रश्न और इन दोनों प्रश्नों के संदर्भ में शिल्प का शुद्ध विलास के लिए उपयोग करना ‘हिंसा’ है।
विलास समाज के भीतर बहुजन की रोटी के अपहरण पर और स्वयं अपनी आत्मा के हनन पर ही फलता-फूलता और फैलता है।
पश्चिम में क्या हुआ? विलास के घोर अरण्य में घासपात के भीतर आत्मा का ही लोप हो गया। अब पश्चिमी साहित्य उस हीरे की खोज में विकल होकर सारे अलंकरण-आवरण को फेंककर नग्नता के मध्य, ‘न्युडिटी’ के माध्यम से, मुक्ताचरण के माध्यम से उसे जानना-पहचानना चाहता है। विलास और अलंकरण-तृषा ‘परपीड़न’ तो है ही, आत्महिंसा भी है। और पुतुल, जानती है इस हिंसा का सर्वाधिक लक्ष्य कौन है? वह है नारी! परंतु पुतुल, आत्मविस्मृति की हद तब हो जाती है जब वह इस हिंसामृगया की शिकार होकर भी स्वयं को शिकारी मानने लगती है, अपने को पक्का खिलाड़ी मानने लगती है, पर यह भूल जाती है कि खेल शुरू हो जाने पर जो कमज़ोर रहता है, उसे ही खिलौना बन जाना पड़ता है, वह खिलाड़ी नहीं रह जाता। गांधीजी ने विलास और अलंकरण-तृष्णा के स्थान पर सादगी की जो वकालत की है, वह किसी पुराणपंथी शुष्कता के कारण नहीं; बल्कि इस ‘परहिंसा’ और ‘आत्म-हिंसा’ के विरोध में ही है। इसी से उनकी शिल्प-दृष्टि में ‘सत्य’ केंद्रीय रहते हुए भी अहिंसा से जुड़ा है और दोनों जीवन को ‘अभय’ की ओर ले जाते हैं।
गांधीजी को इसका श्रेय है कि जीवन के हरेक क्षेत्र में सूक्ष्म रूप से प्रवेश करती हुई हिंसा के ख़ूबसूरत से ख़ूबसूरत चेहरों के भीतर छिपी सर्प-दृष्टि को वे पहचानते थे और उँगली उठाकर उसके प्रति हमें निरंतर सावधान करते रहे।
पुतुल, मैं मूल प्रश्न से ज़रा बहक गया। पर वह इसलिए कि गांधीजी की एक बात उनकी दूसरी बातों से जुड़ी चलती है और कुछ इसलिए भी कि इन बातों को दुहराकर तुम्हारे ‘मूड’ को ‘गांधी-गांधी’ जैसी सुगंधि से भर देना चाहता था जिससे तुम्हें मेरी पहली बात स्मरण हो जाए कि अपनी सौंदर्य-चेतना में भी गांधीवाद मूलतः एक नैतिक चेतना ही है। अस्तु, तो अब असली मुद्दे पर आ रहा हूँ। मेरी समझ से गांधीजी का सारा साहित्य-दर्शन ख़त्म हो जाता है एक शब्द पर और वह शब्द है ‘सत्य’।
गांधीजी ने एक बार ख़ुद कहा था— “जो सच बोलता है, वही सबसे बड़ा कवि है।” यानी सच बोलना ही सबसे बड़ी कविता है।
अब इससे बढ़कर और क्या बात हो सकती है, रे पुतुल! इतनी साफ़, इतनी पारदर्शक और इतनी स्पष्ट! तो भी तेरी सुविधा के लिए इसकी कुछ व्याख्या अपनी सामर्थ्य के अनुसार कर देता हूँ।
पुतुल, तू तो जानती है क्योंकि संस्कृत तो बी.ए. तक तेरा विषय रहा है, कि ‘कवि’ के लिए पुराना शब्द है ‘ऋषि’। ‘ऋषि’ वही होता है जो ‘सत्य’ का दर्शन करता है और ‘सत्य’ का मंत्रों-श्लोकों के माध्यम से उद्घाटन करता है। ऋषि द्वारा दृष्ट और अभिव्यक्त सत्य होता है—शुद्ध सत्य, अलंकारणहीन स्वाहा-शिखा जैसा दीप्त और स्वतः प्रकाशित सत्य—ऐसे ही सत्य की खोज में उसकी सिसृक्षा तल्लीन रहती है। उसकी सनातन प्रार्थना ही यह रही है कि देवता, हमें बाह्य रूप मोहित न करे; हे देवता, तुम अपना आवरण हटाओ, हिरण्यमय माया वल्कल फेंको, मैं तुम्हें शुद्ध नग्न, भास्वर और शाश्वत रूप में देखना चाहता हूँ। यही है भारतवर्ष की मौलिक कवि-दृष्टि। ऐसी दृष्टि वाला पुरुष ऋषि या कवि हो सकता है। हमारा विश्वास रहा है— “सत्येन धर्मः प्रतिष्ठितः” अर्थात् जीवन का सम्पूर्ण संविधान सत्य पर आश्रित होता है। साहित्य भी जीवन से बाहर की चीज़ नहीं। इसी से हमारे यहाँ प्रवाद रहा है, ‘ऋषि सत्यं वाचः’ जो ‘ऋषि’ यानी कवि है, वह सत्य बोलता है। इसी बात को गांधीजी ने कह दिया, सादे ढंग से कह दिया कि सच बोलना ही सर्वोत्तम कविता है। जो सच बोलता है, वह ऋषि है और जो ऋषि नहीं है, वह काव्य नहीं कर सकता— ‘नानृषिः कुरुते काव्यम’ यह है भारतवर्ष का क्लासिकल विश्वास। अपने को ऋषि बनाकर ही कविता करने की क्षमता का आहरण हो सकता है। बिना अपने को ऋषि बनाए, अपनी सिसृक्षा को तप की यंत्रणा पर बिना निखारे, सच्ची ईमानदार (सिंसियर) रचना नहीं की जा सकती।
साहित्य मानसिक वातावरण का और संस्कार-समूहों का सर्जक होता है। यही उसकी उपलब्धि और दायित्व है। इस दायित्व का सही निर्वाह ‘अनृत’ पर, झूठ पर, प्रचारवाद पर अपने को प्रतिष्ठित करके नहीं किया जा सकता, ग़लत निर्वाह चाहे जैसे कर लें। गांधीवादी दृष्टिकोण इस मुद्दे पर आज के चालू ‘प्रतिबद्धता’ और ‘समांतरता’ वाले दृष्टिकोण से सर्वथा भिन्न है। साहित्य जनता की एषणाओं का ‘भाँड़’ या दलाल नहीं होता है। विशेषतः वह काव्य जो ऋषि-कवि लिखता है, जनता के मनोरंजन या काम-पूर्ति के हेतु नहीं लिखता। उसकी भूमिका एक और होती है, गुरु की भूमिका। यह भूमिका वह समसामयिक नारेबाज़ी में फँसकर भूल जाएगा। मैं यहाँ पर एक ऐसे गांधीवादी साहित्यकार की बात उपस्थित करना चाहूँगा जिसकी प्रगतिशीलता में कोई संदेह नहीं। वह साहित्यकार हैं धनपतराय यानी मुंशी प्रेमचंद— ‘गोदान’ के लेखक, जिन्हें उनके ही बेटे भाई अमृतराय ने महज़ ‘क़लम का सिपाही’ ही माना है। ख़ैर वे उनके बेटे हैं और वे अपने बाप को ‘क़लम का सिपाही’ या उससे नीचे ‘क़लम का मज़दूर’ कहने का पूरा हक़ रखते हैं। पर मैं उन्हें ‘सिपाही’ नहीं, ‘युगद्रष्टा’ और विचारों का उत्प्रेरक मानता हूँ। ‘जाकी रही भावना जैसी’ वाली बात है। उन्हीं मुंशीजी ने लिखा है— “रूस में ‘सोवियत राइटर्स यूनियन’ है। और देशों में है या नहीं, मुझे नहीं मालूम। लेकिन मुझे लेखकों को केवल ‘कलमी मजूर’ समझने में कुछ आनंद नहीं मिलता। उसी तरह जैसे उपदेशक को वाणी का मजूर, और राष्ट्र के सेवकों को सेवा का मजूर समझने में कष्ट होता है। लेखक केवल मजूर नहीं बल्कि और कुछ है—वह विचारों का आविष्कारक और प्रचारक भी है।”
मैंने इस बात को उनकी हस्तलिपि के ‘मुद्रित’ रूप में पढ़ा है। ज़ाहिर है कि वे लेखक की भूमिका को ‘द्रष्टा’ या ‘ऋषि’ की भूमिका के रूप में ग्रहण करते हैं। और जब लेखक की भूमिका इतनी बड़ी है तो वह अपने को ‘अनृत’ या ‘अर्द्धसत्य’ या ‘दलगत-सत्य’ या ‘फ़ैशनेबुल सत्य’ से क्यों प्रतिबद्ध रखेगा? और जहाँ तक गांधीजी की बात है, वे तो साधारण राजनैतिक कार्यकर्ता तक के लिए ‘सत्याग्रही’ होने की शर्त रखते हैं, तो कवि-लेखक या साहित्यकार की तो बात ही नहीं। वे साहित्य के कार्यकर्ता के लिए ‘प्रचार’ ‘अर्द्धसत्य’ ‘दलआश्रित सत्य’ या फ़ैशनेबुल चालू बाज़ारू रुचि पर आश्रित सत्य को कैसे प्रस्तावित कर सकते हैं? पूरी की पूरी ‘गांधियाना’ अर्थात् पूरा ‘गांधीयान’ इसी बात का समर्थक है कि साहित्यकार सत्य के प्रति ईमानदार रहे और सत्य के लिए ही एक सांस्कारिक, मानसिक वातावरण तैयार करे जिससे प्रथमतः मनुष्य को ‘अभय’ की उपलब्धि हो, द्वितीयतः मनुष्य में अंतर्निहित आत्मिक क्षमताओं का विकास हो। ये ही दो उनके दायित्व हैं जो अन्योन्याश्रित हैं। ऐसा ही काम मध्ययुग के संत-साहित्य ने किया था। इसी से तुलसी-कबीर-नरसी मेहता उन्हें प्रिय थे। कहा गया है कि— ‘इंद्रियाणां नतो मनः मनो नतस्तु मारुतः।’ ‘इंद्रियाँ मन के वश में हैं और मन ‘मारुत’ (हवा) के वश में हैं। पुराने संदर्भ में मारुत ‘माने’ प्राणवायु! परंतु आधुनिक संदर्भ में ‘मारुत’ माने वातावरण। और जैसा वातावरण वैसा मन। यदि साहित्यकार अनृत और अर्द्धसत्य पर आश्रित होकर देश का मानसिक वातावरण तैयार करेगा तो इसका प्रभाव हमारे ‘मन’ यानी चिंतन और ‘इंद्रिय’ अर्थात् कर्म पर पड़ेगा। लाख क़ानून बनें, प्रस्ताव हों, धोती खोलकर समाजवाद की चर्चा हो, उपलब्धि जो होगी वह ठीक उल्टी या विलोम होगी। राजनीतिज्ञ तो अर्द्धसत्य बोलेगा ही। अर्द्धसत्य और ‘अनृत’ तो उसकी रोटी-दाल है। परंतु साहित्यकार किस लाभ के लिए, किस श्रेय-प्रेय के लिए, यह सब करने जाएगा और उत्तरकालीन पुरुषों की लुटिया भी डुबाएगा? राजनीतिज्ञ द्वारा प्रदत्त एक पत्तल भात के लिए? यह सोचने और चिंता करने की बात है कि तुम ‘ऋषि’ हो या ‘पावनी-पजहर’ नाई-बारी-भाँट हो? गांधीजी तो कहते हैं कि तुम ‘ऋषि’ बनो। आगे तुम्हारी मर्ज़ी।
देख पुतुल, जैसे आदमी ग़लत और सही दोनों क़िस्म के होते हैं, वैसे ही साहित्यकार या साहित्य भी ग़लत और सही दोनों क़िस्म के होते हैं। ग़लत क़िस्म के साहित्यकारों द्वारा लिखित साहित्य, राहुकेतु के द्वारा की गई भलाई की तरह कुछ काल के लिए भले ही उपयोगी हो अथवा बड़ा मौज़-आनंद दे दे, पर चरम फल ‘हराहर माहुर’ यानी हलाहल विष ही होता है। घृणा, द्वेष, ईर्ष्या, कुंठा, दमित-वासना और रमण-तृषा को उपजीव्य बनाकर लिखा गया साहित्य ग़लत क़िस्म का साहित्य है, क्योंकि ये सब अनृत के ही चेहरे हैं। अनृत तो बड़ा कुहकी-मायावी और बहुरूपी होता है और वह राधा-कृष्ण जैसे ख़ूबसूरत चेहरे और साजपोशाक लेकर भी आ सकता है। पर देश या मनुष्य जाति के इतिहास में उसका चरण फल घातक ही साबित होगा। विकृति के द्वारा संस्कृति हासिल नहीं हो सकती। गांधीजी इस बात पर जीवन-भर ज़ोर देते रहे। ‘कला कला के लिए’ वाले सिद्धांत को मानने वाले ‘ऑस्कर वाइल्ड’ का मत था, और बाद में उसकी इस बात को आधुनिक साहित्य में तरह-तरह की संचाओं से प्रचालित किया गया है, कि ‘कला’ या ‘कलात्मकता’ सब कुछ को सुंदर बना सकती है, अनैतिकता और अश्लीलता को भी। गांधी ने 13/11/1934 के यंग इंडिया में इस मत का विरोध करते हुए लिखा था— “वाइल्ड केवल बाह्य कौशल या रूपायन में ही श्रेष्ठतम कला को देखते हैं, इसी से वे अनैतिकता को भी सुंदर बना बैठे।” परंतु ऋषि-दृष्टि बाह्य सौंदर्य के वल्कल पर मुग्ध नहीं होती। वह तो इस रूपमय निर्मोंक के भीतर छिपे सत्य को देखती है। श्रेष्ठ साहित्य के लिए ज़रूरी है ऋषि-दृष्टि क्योंकि ‘ना-ऋषि कुरुते काव्यम्’ — ‘अ-ऋषि काव्य नहीं कर सकता।’ गांधीजी मीरा के प्रेमगीतों को श्रेष्ठ साहित्य मानते थे क्योंकि उसमें भावात्मक सच्चाई है, जिसे अंग्रेज़ी में ‘सिंसिएरिटी’ कहते हैं। यह भी सत्य का ही एक रूप है। परंतु जयदेव का ‘गीत गोविंद’ इतनी ऊँचे दर्जे की कविता होने के बावजूद उनकी दृष्टि में वीभत्स था, क्योंकि वस्तुतः ‘गीत गोविंद’ की आरोपित दार्शनिक व्याख्याएँ जो कहें, उसकी अभिव्यक्ति में शुद्ध रमण-तृषा और कामोपासना के सिवा और कुछ नहीं। गांधीजी के साथ बहुत दिनों तक काम करने वाले गुजराती लेखक श्री चंद्रशंकर शुक्ल ने लिखा है, “साहित्य सा किसी भी तरह की कला में वे ‘सुंदर’ को विषयवस्तु से पृथक करके नहीं देखते थे। उदाहरण के लिए कामुक वर्णनों से लदा हुआ ‘गीत गोविंद’ उन्हें कुरुचिपूर्ण लगता था।” परंतु भावनात्मक सच्चाई से निकले हुए मीरा के प्रेमगीत उन्हें तुलसी, कबीर के पदों से ज़्यादा नहीं तो कम प्रिय भी नहीं थे। उनके सरस व्यक्तित्व के विषय में तो पहले के पत्र में लिख ही चुका हूँ। तुम्हें वह सब स्मरण होगा ही।
प्रिय पुतुल, यदि तू चाहे तो मेरे सामने एक तीखा सवाल पेश कर सकती है। कभी ऐसा भी हो सकता है कि साहित्यकार के द्वारा उपलब्ध ‘सत्य’ जनमत के विरुद्ध हो, वह जनता द्वारा आकांक्षित अभीष्ट सत्य के प्रतिकूल जाए, ऐसी अवस्था में क्या साहित्यकार अपने ‘सत्य’ से प्रतिबद्ध रहकर जन-विरोधी और प्रतिगामी (या और कुछ शब्द ‘प्रतिक्रियावादी’) बने, या बहती हवा के साथ उसकी भी बाँसुरी बजे? देख पुतुल, पहली बात तो यह है कि ‘जनमत’ या ‘जनता’ व्यवहारतः अस्पष्ट सत्ताएँ हैं। जिसे हम लोग जनमत कहते हैं, वह वस्तुतः किसी पार्टी या व्यक्ति के विचारों का ही प्रेम-अख़बार-रेडियो एवं संगठित प्रचार-प्रशिक्षण के फलस्वरूप, एक विस्तार-मात्र होता है। प्राचीनकाल में राजा ‘ईश्वर’ का प्रतिनिधि माना जाता था। ठीक उसी शैली में, उसी सीमा तक और उसी अर्थ में कुछ लोग या कुछ दल अपने को ‘जन-प्रतिनिधि’ बना लेते हैं। आधुनिक दल-तांत्रिक व्यवस्था का कुछ रूप ही ऐसा है। ‘जनमत’ नाम की कोई चीज़ होती नहीं, बल्कि वह कुछ लोगों द्वारा अपने विचारों की आकृति में प्रयत्नपूर्वक बनायी जाती है। सर्वथा नहीं तो कम-से-कम सौ में नब्बे मुद्दों पर यही होता है। जैसे ‘ईश्वर’ शब्द के साथ पर्याप्त व्यभिचार और स्वार्थ-मृगया हो चुका है, वैसे ही ‘जन’ शब्द के साथ भी। उसके ज़रा भी कम नहीं। ऐसी हालत हो चुकी है, वैसे नहीं माना जा सकता कि जनमत जो कहेगा, वही सर्वदा सत्य होगा या ‘जनमत’, ‘बहुमत’ या ‘जनता’ की राय सदा ‘सत्य’ ही होगी। ऐसी हालत में गांधीवादी साहित्यकार के लिए ज़रूरी हो जाता है ‘जनमत’ के विरुद्ध विद्रोह! “एकला चलो रे।” सत्य के लिए अभिमन्यु की तरह अकेले खड़े हो जाना। भग्न चक्र की छाया में। गांधीवाद को मैंने जिस रूप में समझा है, उससे यही निष्कर्ष निकाल पाता हूँ, दूसरा नहीं। प्राचीन काल में ‘राजा’ विष्णु का अवतार होता था और कवि उसकी सभा का पक्षधर बन बहुत कुछ गाता था जो झूठ होता था। आज ‘राजा’ जनता ही है और ‘जनप्रतिनिधि’ जनता का अवतार है। यदि पुरानी राजसभा का दरबारी होना कवि के लिए गर्हित कर्म माना जाए तो नई सभा के लिए भी यह कर्म गर्हित ही माना जाएगा। आज राज्यसभा का चेहरा बदल चुका है। ‘राजसभा’, ‘मंत्रिपरिषद्’ या ‘संसद’, विधानसभा’ सीमित नहीं। यह भीतर-भीतर आपादमस्तक ज़िले-ज़िले के शासनारूढ़ और विरोधी दलों के पार्टी-ऑफ़िसों तक फैली है। एक से एक शकुनि, दुशासन इसमें भरे पड़े हैं। सूक्ष्म रूप से देखो तो इस सहस्त्रबाहु राजसभा की भुजाएँ विश्वविद्यालयों में पढ़ाए जाने वाले पाठ्यक्रम और सम्पादकीय अग्रलेखों के मध्य भी स्थित हैं। शासक दल और विरोधी दल एक ही राजसभा के दो चेहरे हैं और यही राजसभा ‘जनमत’ या ‘जनता का अनिष्ट’ निर्धारित करती है। गांधीवादी साहित्यकार में इतनी मर्दानगी होनी चाहिए कि मौक़ा पड़ने पर इस जनता की राजसभा का भी दरबारी न बने और यदि जनमत के विपरीत जाने से उत्तरकालीन मानव का मंगल साधन हो, तो वह साहसपूर्वक अपनी अकेली आवाज़ को ही बुलंद करे। यदि सत्य का चीरहरण जनता करने जाए तो साहित्यकार जनता के राज-दरबार के दरबारी की तरह “वाह, वाह, क्या बात है! क्या नज़ारा है!” कहकर तालियाँ न पीटे!
देख पुतुल, जनता बेचारी तो अबोध होती है, निर्दोष और प्रवंचित! कुछ चालाक लोग उसे अनृत पर ठेल सकते हैं। इसकी सम्भावना सदा ही रहती है। ऐसी हालत में ही गांधीवाद साहित्यकार को जनता के विरुद्ध स्वर उठाने की स्वीकृति देता है; इतिहास की विशेष परिस्थितियों में ही। सर्वदा नहीं। ऐसी छूट न होने पर ‘ऋषि कवि’, ‘अभय’ और ‘सत्य-अहिंसा’ की सारी बातें निरर्थक हो जाएँगी। साहित्यकार यदि राजा-रईस-पूँजीपति का चाटुकर नहीं है, तो तथाकथित जनता का भी चाटुकार नहीं हो सकता।
ख़ैर, पुतुल पत्र लम्बा हो रहा है। अतः समाप्त कर रहा हूँ। गांधीजी की साहित्य-दृष्टि के पीछे ‘सत्य’ का दर्शन यानी सत्य का ज्ञानयोग और सत्य का आचारयोग है। मूल बात यही है। अगले पत्र में इसी विषय पर अधिक स्पष्ट और व्यावहारिक तौर पर कुछ लिखूँगा। तब जाकर बात पूरी समझ में आएगी। लेकिन आज की बात याद रखना, पुतुल कि ‘सच बोलना ही सर्वोत्तम काव्य है।’ एक बात बता दूँ तुझे कि तू मुझे सुंदर क्यों लगती है? प्रिय बहू, इसलिए कि तू सच बोलती है। तेरा चेहरा-मोहरा तो कोई वैसा ख़ास नहीं। और दस भोजपुरी लड़कियों जैसा ही है। दो-चार चेचक के दाग़ भी हैं। तो भी तू मुझे कविता जैसी लगती है, क्योंकि सच बोलती है। यदि तू झूठी होती तो हेमामालिनी जैसा चेहरा होने पर भी अपनी ससुराल वालों को भयंकर ही लगती। तन-मन-वचन की निर्मलता ही सच्चा सौंदर्य है। तुझे देखकर बार-बार यही लगता है। पर तू कहेगी, “भैया, बचपन में जब मैं पढ़ती थी न! तब ख़ूब झूठ बोलती थी, मास्टर के साथ या माँ के साथ। माँ तो मेरे तिकड़म से परेशान रहती थी पर ससुराल में आकर देखा कि अब बिना गांधीवादी बने गुज़र नहीं—सच बोलने में ही ख़ैरियत है।” तो ठीक है, दिन-भर का भूला-भटका शाम को सही रास्ते पर चलकर घर तो पहुँच गया।
तुझे बहुत-बहुत आशीर्वाद और स्नेह!
तुम्हारा
भैया
(पत्र मणि पुतुल के नाम से)