‘Sach Kewal Aankhein Bolengi’, a poem by Asheesh Tiwari

हर अत्याचार पर और हर अपराध पर
जब तुम चुप होते हो,
जब ज़ुबान पर, अपनी हिफ़ाज़त का ताला लगा लेते हो
तो वहाँ भाषा आत्महत्या कर लेती है,
या कह सकते हो कि उसकी हत्या हो चुकी
लेकिन उसी वक़्त तुम्हारी आँखें शर्म से झुक जाती हैं
शर्म से झुकी आँखों में जो थोड़ा बहुत पानी मचमचाता है
वो भाषा की मृत्यु का शोक है,
उसे रुदन नाम देना बड़ी चूक होगी

सत्य की माँग पर ज़ुबान दोगली हो सकती है
पर आँखें, ग़ज़ब की ईमानदार होती हैं,
उनमें दु-मुँहापन नहीं होता
सत्य से मुड़ जाने पर वे स्थिर नहीं रह पाती
विचलित होकर झुक जाती हैं
सत्याभिमुख नेत्र सदैव शिव के तीसरे नेत्र की भाँति विकराल होती हैं
यदि खुल जाए तो संहार धारण कर लें

किसी वारदात के गवाह की भाषा तो बदली जा सकती है
लेकिन आँखों से गुज़रे उस अंजाम को,
उस दॄश्य की सच्चाई को बदला नहीं जा सकता
भाषा से कहीं अधिक प्रामाणिक मौन भरी आँखें होती हैं
मौन, भाषा के सत्य-असत्य को पी जाता है
दुनिया की तमाम भाषाओं में असंख्य अपराध दबा लिए गए हैं
अपराधियों व हत्यारों को भाषा के चक्करदार, कई परतों के भीतर छिपाकर बचा लिया गया है
भाषा के भँवर में कई हत्याएँ ओझल हो गईं

पर आँखों से जब भी पूछोगे उस घटना के बारे में-
जिसमें किसी एक को सैकड़ों हाथों ने
अलग-अलग हथियारों से कूंचा हो,
उनमें से कुछ ने हवा में उछाल भरकर उसके सीने पर बारी-बारी से छलाँग लगाई हो,
तब उस इंसान के मुँह से बलबलाकर जो ख़ून होठों से निकलकर गले तक बहा
उस वक़्त उसकी ज़ुबान से निकला ‘माँ’ शब्द किसी भाषा में अँटता नहीं
आँखें उनका सही चलचित्र उपस्थित कर देंगी,
उनका भी जो जेल की हिरासत में अचानक मर गए,
और उनका भी, जिन्हें हिरासत के बाहर एनकाउंटर में मार दिया गया,

उन पेड़ों का भी चलचित्र उपस्थित कर देंगी,
जिन्हें रेशे-रेशे करके रेत दिया गया रातोंरात

उस नदी के पेट का भी,
जहाँ से रातोंरात बालू निकालकर शहरों में बेच दिया गया

उस लड़की के शरीर के घावों का भी
जिसकी जांघ और काख के कोनों से गहरा ख़ून निकल रहा हो

जंगल में रहने वाले उन लाखों परिवारों की,
जिन्हें एक सरकारी आदेश पर उनकी ज़मीनों से बेदख़ल कर दिया गया,

और भी बहुत कुछ है जो भाषा की चुप्पी में समा जाता है
भाषा का मौन होना ताक़त बनता है
पर भाषा की चुप्पी ज़हर…
इसलिए ऐसे समय में आँखों से देखे दृश्य को बार-बार याद करो,
उस पर ही भरोसा करो,
तब तक, जब तक भाषा आँखों के चलचित्र का विश्वसनीय बयान न दे दे!

आशीष कुमार तिवारी
जन्म : 20 मार्च 1993, इलाहाबाद। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में आधुनिक हिंदी कविता पर शोधरत। 2022 में प्रकाशित पहला काव्य-संग्रह 'लौह-तर्पण' वैभव प्रकाशन, रायपुर, छ. ग. से। 'अक्षर पर्व', 'छत्तीसगढ़ मित्र', 'देशबन्धु दैनिक अखबार', 'वागर्थ', 'समकालीन जनमत', 'हिमांजलि', 'कथा', 'अकार अंक 55', 'बनास जन' अंक 38 व 'पक्षधर' पत्रिका में कविताएं प्रकाशित। मो. 9696994252 7905429287 ईमेल. [email protected]