सरकारी स्कूल असल मायने में ‘पब्लिक स्कूल’ हैं। ये हर व्यक्ति के और हर जगह काम आते हैं—इसमें सबसे पिछड़े इलाक़ों के सबसे ज़्यादा वंचित लोग भी शामिल हैं। पिछले लगभग दो दशकों से एस. गिरिधर अज़ीम प्रेमजी फ़ाउंडेशन के साथ अपने काम के दौरान देश के अलग-अलग हिस्सों में भ्रमण करते हुए सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था को क़रीब से देखते रहे हैं। इन वर्षों में वे ऐसे सैकड़ों सरकारी स्कूल शिक्षकों से मिले हैं जो अपनी देखरेख में आने वाले बच्चों की ज़िन्दगियों को बेहतर बनाने के लिए पूरी तरह से प्रतिबद्ध रहे हैं। ये वे शिक्षक हैं जो हर सीमा को लाँघने का साहस रखते हैं क्योंकि इनका मानना है कि हर बच्चा सीख सकता है। सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था का बेहद क़रीबी और आँखों देखा हाल बताने वाली पुस्तक है ‘साधारण लोग असाधारण शिक्षक’। पिछड़े इलाक़ों और वंचित तबकों के बीच सरकारी स्कूलों का महत्त्व बताती किताब। सरकारी स्कूल के शिक्षक जिस माहौल में काम करते हैं, उस माहौल और परिवेश का, उनकी प्रतिबद्धता और जुझारूपन का प्रामाणिक वर्णन। किताब राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुई है। प्रस्तुत है एक अंश—
ये कहानियाँ क्यों कही जानी चाहिए
क्या सरकारी स्कूलों के शिक्षकों में अपने काम को लेकर प्रतिबद्धता व्यापारिक (निजी) क्षेत्र के कर्मचारियों से भी कम है? एक ऐसे दौर में यह सवाल थोड़ा बेवक़ूफ़ाना जान पड़ता है जब सरकारी स्कूल के शिक्षक को हमारी शिक्षा व्यवस्था की हर असफलता के लिए ज़िम्मेदार खलनायक और निजी क्षेत्र को मेहनत व लगन का पर्याय माना जा चुका है। लेकिन हमने बड़ी मुश्किल से यह सबक सीखा है कि बेवक़ूफ़ाना सवाल न सिर्फ़ पूछे जाने चाहिए बल्कि उनके जवाब भी दिए जाने चाहिए। क्या सितारे और सूरज वाक़ई धरती के चारों तरफ़ घूमते हैं? क्या हैजे की महामारियों के पीछे वाक़ई ‘चुड़ैलों’ का हाथ होता था?
2002 से 2016 तक हमने लाखों सरकारी स्कूल शिक्षकों के साथ काम किया (और आज भी कर रहे हैं)। ये कोई संक्षिप्त आदान-प्रदान नहीं बल्कि दीर्घकालिक संवाद थे। हमें कहीं कोई खलनायक नहीं दिखायी दिया—न जंगलों में, न पहाड़ों पर और न ही रेगिस्तान में जिन गाँवों और छोटे-छोटे शहरों में ये शिक्षक रहते हैं, और जहाँ मेरे सहकर्मी भी रहते हैं, वो जगहें हैं जहाँ बाहर से कोई बमुश्किल ही जाता है, यहाँ तक कि ख़ुद को हमेशा सही मानने वाले शिक्षकों के कट्टर आलोचक भी नहीं जाते।
शिक्षक की खलनायक की छवि और वास्तविकता के बीच के सबसे बड़े विरोधाभासों में से एक, जो इन वर्षों में हमने देखा, वह था—स्कूल से शिक्षकों की ‘ग़ैर-मौजूदगी’ की बाबत। यह एक आम राय है—यहाँ तक कि सरकारी तंत्र के ऊपरी पायदानों पर भी और कुछ कथित विद्वत्तापूर्ण शोधों में भी 30 से 50 फ़ीसदी शिक्षकों के स्कूल में ग़ैर-मौजूद होने का दावा किया जाता है। इतने बड़े पैमाने पर या इसके आसपास भी शिक्षक स्कूल से ग़ायब हों, ऐसा हमने कभी नहीं देखा। यहाँ ‘ग़ैर-मौजूदगी’ का मतलब है बिना औपचारिक छुट्टी लिए या बिना किसी वाजिब वजह के शिक्षक का स्कूल से ग़ायब रहना।
लाखों शिक्षकों के साथ पन्द्रह साल के हमारे अनुभव को इन आलोचकों ने महज़ ‘क़िस्से-कहानियाँ’ कहकर ख़ारिज कर दिया, जबकि उनके दावे या तो सुनी-सुनायी बातों पर या पचास शिक्षकों के सैम्पल के अध्ययन पर आधारित थे। यह देखते हुए शिक्षकों के स्कूल से ग़ैर-हाज़िर रहने के मसले पर हमने एक अध्ययन करने का फ़ैसला किया। यह अध्ययन 2017 में अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के शिक्षा में फ़ील्ड स्टडी शृंखला के अन्तर्गत प्रकाशित हुआ। इसमें स्कूल में शिक्षकों की ग़ैर-मौजूदगी की दर 2.5 फ़ीसदी पायी गई। इस अध्ययन से शिक्षकों का पक्ष सामने आया। लेकिन तथ्यों पर बिलकुल ध्यान नहीं देते हुए कुछ लोगों ने कहा कि हम शिक्षकों को ‘बचाने’ की कोशिश कर रहे हैं।
जिस हफ़्ते वह अध्ययन प्रकाशित हुआ था, मैं उत्तरकाशी जिले में था। एक स्थानीय लोकप्रिय हिन्दी दैनिक ने सनसनीख़ेज़ हेडलाइन छापी— ‘स्कूलों के निरीक्षण में ज़िले में 26 शिक्षक स्कूल से नदारद मिले!’। शिक्षकों को ‘नदारद’ बताना एक गम्भीर आक्षेप था। अगले दिन अख़बार को इस बारे में स्पष्टीकरण छापने पर मजबूर होना पड़ा। सिर्फ़ एक शिक्षक अनुपस्थित था, पाँच शिक्षक आधिकारिक अनुमति से छुट्टी पर थे और बाक़ी के बीस शिक्षकों को शिक्षा विभाग ने प्रशिक्षण पर भेजा था। इस छोटी-सी घटना से पता चलता है कि किस तरह शिक्षक की खलनायक वाली छवि बनाने के लिए भ्रामक व्याख्याएँ लगातार इस्तेमाल की जाती हैं।
हमारे शोध अध्ययन से पता चला कि लगभग 18 फ़ीसदी शिक्षक अपने स्कूल में नहीं थे। 2.5 फ़ीसदी शिक्षक बिना कोई कारण बताए स्कूल से नदारद थे, 6 फ़ीसदी छुट्टी पर थे, और लगभग 11 फ़ीसदी शिक्षक किसी वाजिब वजह से बाहर थे (मसलन, विभाग की तरफ़ से प्रशिक्षण के लिए गए हुए)। अपनी रपट और उसके शीर्षक लिखते हुए हमने बिलकुल साफ़-साफ़ ये आँकड़े दिए थे जिसमें 18 फ़ीसदी शिक्षकों की ‘ग़ैर-मौजूदगी’ होने जैसी किसी बात की कोई गुंजाइश ही न हो। यानी उस अख़बार की सनसनीख़ेज़ ख़बर के पीछे की सच्चाई दरअसल कुछ और थी।
आज के दौर में घटिया दर्जे के मीडिया संस्थानों की जैसे बाढ़ आ गई है, उसको देखते हुए इस तरह की हरकत पर कोई आश्चर्य नहीं होता। मैं इस तरह की बात उन शोधकर्ताओं के लिए नहीं करूँगा जिनके शोधपत्रों ने इस झूठे आख्यान को गढ़ने में भूमिका निभायी है। हालाँकि यह सच है कि इन शोधपत्रों ने वाक़ई शिक्षकों को बलि का बकरा बनाने की प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया है। इन शोधपत्रों के फ़ुटनोटों या अन्दर के पन्नों की तालिकाओं में यही बात दर्ज की जाती है कि शोधपत्र के शीर्षक में 25-30 फ़ीसदी शिक्षकों की अनुपस्थिति की जो बात कही जा रही है, उसमें वाजिब कारणों से स्कूल में ग़ैर-हाज़िर शिक्षक भी शामिल हैं और यह भी कि बिना वजह स्कूल में ग़ैर-मौजूदगी का आँकड़ा असल में 3-4.5 फ़ीसदी ही है। इन शोधपत्रों का धड़ल्ले से झूठे प्रचार के लिए इस्तेमाल किया गया है और ऐसे कुछ पत्रों के लेखकों ने इस बारे में कभी कोई स्पष्टीकरण देने की कोशिश भी नहीं की है।
और जब शिक्षक इस निहायत ही झूठे आख्यान का विरोध करते हैं तो इसे गुनहगारों की चिल्ल-पों कहकर ख़ारिज कर दिया जाता है।
ज़ाहिर है कि अगर इतने सारे शिक्षक स्कूल में नहीं होंगे तो पढ़ाई-लिखाई पर असर पड़ेगा। लेकिन यह भी सच है कि इस समस्या के लिए शिक्षकों को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। शिक्षकों की पर्याप्त संख्या उपलब्ध कराना व्यवस्था की ज़िम्मेदारी है। यानी शिक्षकों की उपलब्धता की योजना में अवकाश, दूसरी ज़िम्मेदारियाँ व प्रशिक्षण आदि की सम्भावनाओं को ध्यान में रखना होगा।
निवेदिता मेनन की किताब 'नारीवादी निगाह से' का एक अंश