‘Sahi Uttar’, a poem by Bhupendra Singh Khidia
बारिश के गिरने पर
छमछम की आवाज़ नहीं आती,
न ही पायल की आवाज़
ठीक छनछन-सी आती है,
हवा सांय-सांय कर या
सनन-सनन नहीं चलती,
कोयल कवियों के बताए जितना
मीठा नहीं गाती,
न ही
कौआ उतना बुरा चीख़ता है
जितना लोगों ने कहा।
किसी का सच उतना भी सच नहीं
जितना उसने बताया,
न ही किसी का झूठ उतना झूठा है
जितना हम समझ बैठते हैं,
परमात्मा उतना शक्तिशाली भी नहीं
जितना तुम समझ बैठे,
और उतना कमज़ोर भी नहीं
कि उसकी रक्षा तुम्हें करनी पड़े।
चोर उतना धन नहीं ले जाते
जितना अख़बार में छपा
और लुटने वाले पर उससे ज़्यादा गुज़री है
जितना तुमने देखा,
निर्धन उतना दुःखी नहीं जितना अलंकार व
अतिशयोक्ति के साथ बाहर आया
न ही धनी उतना मौज में है
जितना लगता रहा।
इतिहास ठीक वैसा कभी नहीं रहा
जैसा किताबों में पढ़ाया गया
और न ही भविष्य वैसा होगा जैसी
कल्पनाएँ मस्तिष्क ने रख लीं।
सभी के उत्तर
कहीं बीच में ही रहते हैं,
वास्तविक सत्य कहीं और ही
विराजमान है
और सम्भव है
मेरा ये बीच में कहने का
अनुमान भी उसी तरह ग़लत
अथवा अधूरा हो जिस प्रकार
तुम, मैं, हम सब
और ये कविता।
यह भी पढ़ें: ‘नींद न आवे जग्गण दे’