इतिहास
राजपथ का होता है
पगडण्डियों का नहीं!
सभ्यताएँ
बनती हैं इतिहास
और सभ्य
इतिहास पुरुष!
समय उन बेनाम
क़दमों का क़ायल नहीं
जो अनजान
दर्रों जंगलों कछारों पर
पगडण्डियों की आदिम लिपि—
रचते हैं
ये कीचड़-सने कंकड़-पत्थर से लहूलुहान
बोझिल थके क़दम
अन्त तक क़दम ही रहते हैं
उन अग्रगामी पूजित चरणों के समान
किसी राजपथ को
सुशोभित नहीं कर पाते
शताब्दियाँ—
पगडण्डियों से
पगडण्डियों का सफ़र तय करते
भीड़ में खो जाने वाले
ये अनगिनत क़दम
किसी मंज़िल तक नहीं जाते
लौट आते हैं
बरसों से ठहरी हुई उन्हीं
अन्धेरी गलियों में
जो गलियाँ—
रद्दी बटोरते छीना-छपटी करते कंकालों
कचरों के अम्बारों
झुग्गी-झोपड़ियों के झुके छप्परों से निकलते
सूअरों-मुर्ग़ियों के झुण्ड में से
होकर गुज़रती हैं!