बड़ा था तो क्या, था तो आँगन ही।
दीवारें थीं। छत नहीं थी, ग़नीमत
वरना इतना-सा आकाश भी
मेरे हिस्से में न होता।
आकाश था तो क्या, पंख तो नहीं थे
थे तो दो पाँव ही
जितनी-सी भूमि पर टिके थे
उतनी भर मेरी थी।
सूखी फटी धरती की दरारों से
अनगिनत निशान
माथे पर धूप ने खोद दिए
खड़ी रहीं आसपास
क़द से ऊँची दीवारें
काँच के टुकड़ों में कौंधते सूर्य लिए।
सोच और संकल्प में झूमते
बड़ी देर बाद मैंने जाना—
आँखें सिर्फ़ तब देखती हैं आकाश
जब दीवारों के पार नहीं देख पातीं।
अनुराधा सिंह की कविता 'अबकी मुझे चादर बनाना'