बड़ा था तो क्या, था तो आँगन ही।
दीवारें थीं। छत नहीं थी, ग़नीमत
वरना इतना-सा आकाश भी
मेरे हिस्से में न होता।

आकाश था तो क्या, पंख तो नहीं थे
थे तो दो पाँव ही
जितनी-सी भूमि पर टिके थे
उतनी भर मेरी थी।

सूखी फटी धरती की दरारों से
अनगिनत निशान
माथे पर धूप ने खोद दिए

खड़ी रहीं आसपास
क़द से ऊँची दीवारें
काँच के टुकड़ों में कौंधते सूर्य लिए।
सोच और संकल्प में झूमते
बड़ी देर बाद मैंने जाना—
आँखें सिर्फ़ तब देखती हैं आकाश
जब दीवारों के पार नहीं देख पातीं।

अनुराधा सिंह की कविता 'अबकी मुझे चादर बनाना'

किताब सुझाव:

अर्चना वर्मा
जन्म : 6 अप्रैल 1946, इलाहाबाद (उत्तर प्रदेश) भाषा : हिंदी विधाएँ : कविता, कहानी, आलोचना मुख्य कृतियाँ कविता संग्रह : कुछ दूर तक, लौटा है विजेता कहानी संग्रह : स्थगित, राजपाट तथा अन्य कहानियाँ आलोचना : निराला के सृजन सीमांत : विहग और मीन, अस्मिता विमर्श का स्त्री-स्वर संपादन : ‘हंस’ में 1986 से लेकर 2008 तक संपादन सहयोग, ‘कथादेश’ के साथ संपादन सहयोग 2008 से, औरत : उत्तरकथा, अतीत होती सदी और स्त्री का भविष्य, देहरि भई बिदेस संपर्क जे. 901, हाई बर्ड, निहो स्कॉटिश गार्डन, अहिंसा खंड-2, इंदिरापुरम, गाजियाबाद