1

आज
हर देश का शव नितान्त अकेला है
हर देश का जीवित-भय एक है

एक है धरती
एक है आकाश
एक है पानी का रंग
एक ही स्वाद है आँसू का
एक है घर सकुशल लौटने का सुख

यह समझाने को प्रकृति अगर
इतनी सख़्ती कर रही है
तो
हमें उसे दूसरा अवसर नहीं देना है।

2

अपने हिस्से की
इस इक्कीसवीं सदी के
इस अदृश्य शत्रु से जूझते हुए
कल्पना करो कि
मेरी मृत्यु समीप है

मेरा यक़ीन करो
इस मृत्यु के बाद मिले
जीवन की कल्पना मात्र से
तुम मनुष्य होने का अर्थ समझ लोगे।

3

गुज़र जाएगा यह संक्रमण काल भी
यह पूर्ण विश्वास है मुझे

लेकिन मैं आशंकित हूँ
कि भविष्य कहीं
पुरखों के जूतों पर पुनः सवार न हो जाए।

4

संक्रमण-काल के बीत जाने पर
मुझे प्रार्थना नहीं… ख़ूब विलाप करना है

मैं विलाप करूँ इतना कि
मेरे पीछे खड़े लोग
समझ सकें कि
धरती की पीठ अब थकने लगी है
वक़्त हो चला है अब
इसे वयोवृद्ध समझकर
हम उसके कंधे कुछ तो ढीले करें।

5

उसने विदा लेते हुए
गले नहीं लगाया,
एक मीटर की दूरी से ही
सजल नेत्र लिए
साथ बने रहने को शुक्रिया कहा

उसे जाते हुए देखते लगा
कि अजनबी की ही
पीठ अच्छी लगती है
किसी स्पर्शित हथेली की नहीं!

मेरे पास
विदाई के स्मारक-चिह्न के नाम पर
उसके होंठों की कसमसाहट है
बाँहों की फड़कन है
गूँजते कुछ अस्फुट स्वर हैं
“जाते हुए आप…को छू भी नहीं सकी!”

स्पर्श की भाषावली में भी
हमनें ख़ूब ठहाके लगाए थे
लेकिन यूँ अकेले ही आँसू रोक लेना
क्या भविष्य के अधिक कठोर होने की चेतावनी है।

मंजुला बिष्ट
बीए. बीएड. गृहणी, स्वतंत्र-लेखन कविता, कहानी व आलेख-लेखन में रुचि उदयपुर (राजस्थान) में निवास इनकी रचनाएँ हंस, अहा! जिंदगी, विश्वगाथा, पर्तों की पड़ताल, माही व स्वर्णवाणी पत्रिका, दैनिक-भास्कर, राजस्थान-पत्रिका, सुबह-सबेरे, प्रभात-ख़बर समाचार-पत्र व हस्ताक्षर, वेब-दुनिया वेब पत्रिका व हिंदीनामा पेज़, बिजूका ब्लॉग में भी रचनाएँ प्रकाशित होती रहती हैं।